Book Title: Jain Viaha Vidhi
Author(s): Sumerchand Jain
Publisher: Sumerchand Jain

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Page 42
________________ ( ३२ ) जबलों नहीं शिवलहों तबलों देहु यह धन पावना, सतसंग शुद्धाचरण श्रुत-अभ्यास आतम भावना | तुम बिन अनन्तानन्त काल गयो रुलत जगजाल में, अब शरण आयो नाश दुख कर जोड़ नावत भाल मैं । कर प्रमाण के मान तैं, गगन नपे किंह भन्त, त्यों तुम गुण वरणन करत, कवि नहिं पावें अन्त । विसर्जन सम्पूर्ण विधि कर वीनऊँ हम परम पुजन पाठ में, अज्ञानवश शास्त्रोक्त विधितें चक कीनो पाठ में । सो होउ समस्त विधिवत् तुम चरण की शरण हैं, बन्दों तुम्हें कर जोड़ के उद्धार जन्मन मरण तें । आहाननं स्थापन तथा सन्निधिकरण विधान जी, पूजन विसर्जन यथा विधि जानों नहीं गुण खान जी । जो दोष लागो सो नशां सब तुम चरण की शरण तैं, बन्दों तुम्हें कर जोड़के उद्धार जन्मन मरण तैं । तुम रहित श्रावागमन श्राहानन कियो निज भाव में, विधि यथाक्रम निज शक्ति सम पूजन किया चित चाव मैं । सो होउ पूर्ण समस्त विधिवत् तुम चरण की शरण तैं, बन्दों तुम्हें कर जोड़ के उद्धार जन्मन मरण तैं 1 तीन लोक तिहुँ काल में, तुम सा देव न और । सुख कारण संकट हरण, नमूं युगल कर जोड़ ॥

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