Book Title: Jain Vakya Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 5
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ प्रभाचन्द्र वाक्य के इस अखण्डता सिद्धान्त की समालोचना करते हुए कहते हैं कि वाक्य एक अविभाज्य एवं अपद इकाई है, यह मान्यता एक प्रकार की कपोल-कल्पना ही है क्योंकि पद के बिना वाक्य नहीं होता है, वाक्य में साकांक्ष पदों का होना नितान्त आवश्यक है । वाक्य में पदों की पूर्ण अवहेलना करना या यह मानना कि पद और पदार्थ का वाक्य में कोई स्थान ही नहीं है, एक प्रकार से आनुभविक सत्य से विमुख होना ही है। प्रभाचन्द्र ने इस मत के सम्बन्ध में वे सभी आपत्तियों उठायी हैं जो कि स्फोटवाद के सम्बन्ध में उठायी जा सकती हैं। यह मत वस्तुतः स्फोटवाद का ही एक रूप है जो वाक्यार्थ सम्बन्ध में यह प्रतिपादित करता है कि पद या उनसे निर्मित वाक्य अर्थ के प्रतिपादक नहीं है, किन्तु स्फोट (अर्थ का प्राकट्य) ही अर्थ को प्रतिपादक है। शब्दार्थ के बोध के सम्बन्ध में स्फोटवाद एक मात्र और अन्तिम सिद्धांत नहीं है क्योंकि यह इसका उत्तर नहीं दे पाता है कि पदाभाव में अर्थ का स्फोट क्यों नहीं हो जाता। अतः वाक्य को अखण्ड और अनवयव नहीं माना जा सकता। क्योंकि पद वाक्य के अपरिहार्य घटक हैं और वे शब्दरूप में वाक्य से स्वतन्त्र होकर भी अपना अर्थ रखते हैं, पुनः पदों के अभाव में वाक्य नहीं होता है अतः वाक्य को अनवयव नहीं कहा जा सकता । (५) क्रमवाद एवं उसकी समीक्षा क्रमवाद भी संघातवाद का ही एक विशेषरूप है । इस मत के अनुसार पद को वाक्य का अपरिहार्य अंश तो माना गया है किन्तु पदों की सहस्थिति की अपेक्षा पदों के क्रम को वाक्यार्थ के लिए अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। क्रम ही वास्तविक वाक्य है । जिस प्रकार वर्ण यदि एक सुनिश्चित क्रम में नहीं हों तो उनसे वाक्य नहीं बनता है, उसी प्रकार यदि पद भी निश्चित क्रम में न हों तो उनसे वाक्य नहीं बनेगा। सार्थक वाक्य के लिए पदों का क्रमात्मक विन्यास आवश्यक है । पद-क्रम ही वस्तुतः वाक्य की रचना करता है और उसी से वाक्यार्थ का बोध होता है। पदों का एक अपना अर्थ होता है और एक विशिष्टार्थ । पदों का एक विशिष्ट अर्थ उनमें क्रमपूर्वक विन्यास-दशा में ही व्यक्त होता है । पदों का यह क्रमपूर्वक विन्यास ही वाक्य का स्वरूप ग्रहण करता है। साथ ही क्रमवाद काल की निरन्तरता पर बल देता है और यह मानता है कि काल का व्यवधान होने से पद-क्रम टूट जाता है और पदक्रम के टूटने से वाक्य नष्ट हो जाता है । क्रमवाद में एक पद के बाद आने वाले दूसरे पद को प्रथम पद का उपकारक स्वीकार किया जाता है । पदों का यह नियत क्रम ही उपचीयमान अर्थात् प्रकट होने वाले अर्थ का द्योतक होता है। जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र इस मत को संघातवाद से अधिक भिन्न नहीं मानते हैं, मात्र अन्तर यह है कि जहाँ संघातवाद पदों की सहवर्तिता पर बल देता है, वहां क्रमवाद उनके क्रम पर । उनके अनुसार इस मत में भी वे सभी दोष हैं जो संघातवाद में हैं क्योंकि यहाँ भी देश और काल की विभिन्नता का प्रश्न उठता है । एक देश और काल में क्रम सम्भव नहीं और अलग-अलग देश और काल में पदों की स्थिति मानने पर अर्थबोध में कठिनाई आती है । यद्यपि वाक्य विन्यास में पदों का क्रम एक महत्वपूर्ण तथ्य है किन्तु यह क्रम साकांक्ष पदों में जो कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न रूप से वाक्य में स्थित हैं, ही सम्भव है। (६) बुद्धि गृहीत तात्पर्य ही वाक्य है- इस मत का स्वरूप एवं समीक्षा कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि शब्द या शब्द-समूह बाह्याकार मात्र है, वाक्यार्थ उसमें निहित नहीं है। अतः वाक्य वह है जो बुद्धि के द्वारा गृहीत है । बुद्धि की विषयगत एकाग्रता से ही वाक्य बोला जाता है और उसी से वाक्य के अर्थ का ग्रहण होता है। वाक्य का जनक एवं कारण बुद्धि तत्त्व है । वक्ता द्वारा बोलने की क्रिया तभी सम्भव है, जब उसमें सुविचारित रूप में कुछ कहने की इच्छा होती है। अत: बुद्धि या बुद्धितत्व ही वाक्य का जनक होता है। बुद्धि के अभाव में न तो वाक्य का उच्चारण सम्भव है और श्रोता के द्वारा उसका अर्थ ग्रहण ही सम्भव है । अतः वाक्य का आधार बुद्धि-अनुसंहति है। ४४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jainelibsaGER

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