Book Title: Jain Vakya Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 8
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ अनुसार पदों का वाक्य से एवं दूसरे पदों से निरपेक्ष या स्वतन्त्र अर्थ भी होता है किन्तु वाक्य का पदों के अर्थ से निरपेक्ष अपना कोई अर्थ नहीं होता। वाक्यार्थ पदों के वाच्यार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध या अन्वय पर निर्भर करता है। जब तक पदों के अणे अर्थात पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता है तब तक वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है। वाक्यार्थ के बोध के लिए दो बातें आवश्यक हैं--प्रथम, पदों के अर्थ का ज्ञान और दूसरे, पदों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान । पुनः पदों के पारस्परिक सम्बन्ध के भी चार आधार हैं-(१) आकांक्षा, (२) योग्यता. (३) सन्निधि और (४) तात्पर्य । (१) आकांक्षा-प्रथम पद को सुनकर जो दूसरे पद को सुनने की जिज्ञासा मन में उत्पन्न होती है-उसे ही आकांक्षा कहा जाता है। एक पद को दूसरे पद की जो अपेक्षा रहती है वही आकांक्षा है। आकांक्षा रहित अर्थात परस्पर निरपेक्ष गाय, अश्व, पुरुष, स्त्री आदि अनेक पदों के उच्चारण से वाक्य नहीं बनता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार भी साकांक्ष अर्थात् परस्पर सापेक्ष पद ही वाक्य की रचना करने में समर्थ होते हैं। (२) योग्यता-'योग्यता' का तात्पर्य है कि अभिहित पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध में विरोध या बाधा नहीं होना चाहिए अर्थात् उनमें पारस्परिक सम्बन्ध की सम्भावना होना चाहिए। उदाहरणार्थ 'आग से सींचो इस पद समुदाय में वाक्यार्थ बोध की योग्यता नहीं है, क्योंकि आग का सींचने से कोई सम्बन्ध नहीं है। यथार्थतः असम्बन्धित या सम्बन्ध की योग्यता से रहित पदों से वाक्य नहीं बनता है। (३) सन्निधि-सन्निधि का तात्पर्य है, एक ही व्यक्ति द्वारा बिना लम्बे अन्तराल के पदों का उच्चारण होना। न तो अनेक व्यक्तियों द्वारा बिना अन्तराल के अर्थात् एक साथ बोले गये पदों से वाक्य बनते हैं और न एक ही व्यक्ति द्वारा लम्बे अन्तराल अर्थात् घण्टे-घण्टे भर बाद बोले गये पदों के उच्चारण से वाक्य बनता है। (४) तात्पर्य वक्ता के अभिप्राय को तात्पर्य कहते हैं । नैयायिकों के अनुसार-यह भी वाक्यार्थ के बोध की आवश्यक शर्त है। बिना वक्ता के अभिप्राय को समझे वाक्यार्थ का सम्यक निर्णय सम्भव नहीं होता है। विशेष रूप से तब जब कि वाक्य में प्रयुक्त कोई शब्द द्वयर्थक हो, जैसे 'सैन्धव' लाओ'-इस वाक्य का सम्यक अर्थ वक्ता के अभिप्राय के अभाव में नहीं जाना जा सकता है। इसी प्रकार जब कोई शब्द किसी विशिष्ट अर्थ या व्यंग के रूप में प्रयक्त किया गया हो या फिर वाक्य में कोई पद अध्यक्त रह गया हो । विभक्ति प्रयोग वक्ता के तात्पर्य को समझने का एक आधार है। संक्षेप में, पदों को सुनने से प्रथम अनन्वित (असम्बन्धित) पदार्थ उपस्थित होते हैं फिर आकांक्षा, योग्यता. सन्निधि और तात्पर्य अर्थात विभक्ति प्रयोग के आधार पर उनके परस्पर सम्बन्ध का बोध होकर वाक्यार्थ का बोध होता है। यही अभिहितान्वयवाद है। अभिहितान्वयवाद की समीक्षा जैन ताकिक प्रभाचन्द्र अपने ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में कुमारिलभट्ट के अभिहितान्वयवाद की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि यदि वाक्य को सुनकर प्रथम परस्पर असम्बन्धित या अनन्वित पदार्थों का बोध होता है और फिर उनका पारस्परिक सम्बन्ध या अन्वय ज्ञात होता है तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उनका यह अन्वय (सम्बद्धीकरण) किस आधार पर होता है ? क्या वाक्य से बाह्य किन्हीं अन्य शब्दों/पदों के द्वारा इनका अन्वय या पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित होता है या बुद्धि (ज्ञान) के द्वारा इनका अन्वय ज्ञात होता है ? प्रथम विकल्प मान्य नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण पदों के अर्थों को विषय करने वाला ऐसा कोई अन्वय का निमित्तभूत अन्य शब्द ही नहीं है। पुनः जो शब्द/पद वाक्य में १ प्रमेयकमलमार्तण्ड (प्रभाचन्द्र) पृ० ४५४-४६५ जैन वाक्य दर्शन : डा० सागरमल जैन | ४७ JainELOLICapan www.jainel

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