Book Title: Jain Tirthankaro ke Lanchan Author(s): Rushabhchandravijay Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 1
________________ जैन-तीर्थकरों के लांछन मुनि ऋषभचन्द्रविजयजी 'विद्यार्थी'...." लांछन संस्कृतशब्द है और इसका अर्थ होता है कार्य नहीं है। जहाँ समान देहाकृति हो वहाँ किसी लक्षणविशेष निशानी अथवा चिह्न । प्राकृत और अपभ्रंश में इसे हम लंछण की अपेक्षा अधिक रहती है। के नाम से पढ़ते या सुनते हैं। लांछन के लिए 'मषतिलकादिके वर्तमान समय में शरीर के विशिष्ट लक्षणचिह्नों द्वारा एवं चिह्ने' और 'लंछन अंकों चिंधं' इत्यादि उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में फोटोग्राफ के द्वारा अनजान व्यक्ति को पहचानना सरल हो मिलता है। लक्षण शब्द से भी लांछन शब्द का अर्थबोध होता है। जाता है। पासपोर्ट के लिए और पलिस स्टेशन (थाने) के कितने ही शब्दों के अर्थ में उतार-चढाव आते हैं। अर्थ - रिकार्ड के लिए अनेक मनुष्यों के फोटो के उपरांत उनके प्रत्यक्ष विस्तार और अर्थसंकोच की प्रक्रिया शब्दों के विषय में होती में दिखने वाले विशिष्ट लक्षणों की जानकारी रखने में आती है। रहती है। कितने ही प्रकार समीचीन शालीनता के सूचक श्रेष्ठ दो मनुष्यों की हाथ-पैर की रेखाओं में समानता नहीं होती है। शब्द अधम अर्थों में भी प्रयक्त होने लगते हैं. अर्थात उनके यह कहा जाता है कि दुनिया में किन्हीं भी दो मनुष्यों के हाथ के अर्थ में विनिपात की क्रिया भी होती है। जैसे कि जैन-परंपरा में अंगूठे की रेखाओँ की छाप कभी भी एक सी नहीं होती है। इन लांछन शब्द का प्रयोग तीर्थकरों के श्रेष्ठ चिन्हों का बोध कराने रेखाओं में अनन्त वैविध्य रहता हुआ है। प्रत्येक मनुष्य के शरीर के लिए किया जाता है। परन्तु वर्तमान समय में लोकव्यवहार में ऐसा लक्षण होता है जो उसका स्वयं का विशिष्ट अकेले का ही की भाषा में लांछन शब्द का अर्थ कलंक अथवा दाग है। होता है। ऐसे एक लक्षण के द्वारा अथवा अन्य लक्षणों के द्वारा व्यक्ति की पहचान के लिए उसके लांछन-चिह्न उपयोगी होते मनुष्य को पहचानना सरल हो जाता है। शरीर के विविध अंगों हैं। कितने ही लांछन अच्छे होते हैं और कितने ही खराब होते हैं। के अवलोकन से मानवजाति ने स्वयं के अनुभव के आधार पर कितने लक्षणों को उत्तम प्रकार का कितने ही को मध्यमप्रकार का आँख से काना, हाथ से लूला, पैर से लँगड़ा, सफेद दाग वाला - ऐसे खराब चिह्न वाला मनुष्य तुरंत पहचान लिया जाता है। पुण्यशाली । on एवं कितने ही को जघन्य (हीन) प्रकार का निरूपित किया है। व्यक्ति अथवा भाग्यवान् व्यक्तियों की विशिष्टता का बोध कराने शरीर के अवययों में रहने वाले उत्तम लक्षणों में से जिसमें के लिए उनके शारीरिक असामान्य शुभ चिह्नों को देखा जाता है ३२ उत्तम लक्षण हों वह बत्तीसलक्षणा पुरुष कहलाता है। वह और उन्हें अधिक महत्त्व दिया जाता है, इसी प्रकार तीर्थकरों की पुरुष भाग्यशाली व शकुनवालों में गिना जाता है। भारतीय पहचान के लिए लांछनों का उपयोग किया जाता है। सामुद्रिक-शास्त्र में मानव-शरीर के विभिन्न लक्षणों का बहुत सूक्ष्म रीति से अध्ययन किया जाता है। उसके द्वारा जो शुभाशुभ अनजान व्यक्ति की पहचान के लिए उसकी शारीरिक अनुमान कर सार निरूपित करने में आया है वह विश्व के अन्य स्थिति, ऊँचाई, आँखों का रंग, चमड़ी का रंग काला-गोरा इत्यादि किसी भी साहित्य में देखने को नहीं मिलता है। शरीर व उसके लक्षण काम आते हैं। सामान्य देहलक्षण रूपवर्णन में सहायक विविध अंगों का भी लक्षण व्यंजन (मसा, तिल आदि गुण) होते हैं। एक ही वर्ण वाले व्यक्ति एक से अधिक हों तो उसमें मान (पानी से नाप) उन्मान (वजन से) प्रमाण (अंगुलीमाप) असमंजस होना संभव हो जाता है, परन्तु प्रत्येक मनुष्य के की दष्टि से जाँच कर उसके उत्तम मध्यम और कनिष्ठ प्रकार अंगोपांग में-मस्तिष्क, चेहरे, हाथ, पैर अथवा शरीर के किसी में आते है। भावा पटानी शरीर का तापी अन्य भाग में कोई विशिष्ट निशानी हो तो इसके द्वारा उस व्यक्ति । कल्पसूत्र में इस प्रकार दर्शाया गया है - भगवान् महावीर हीनतारहित की तरंत पहचान हो जाती है। तिल, मसा, लहसुन, घाव के पाँचों इंद्रियों से परिपर्ण तथा लक्षण और व्यंजन गणों से यक्त मान. निशान आदि भरी नीली आँखें सिर पर सफेद बाल या गंजापन उन्मान व प्रमाण से परिपर्ण सजात और सर्वांगसन्दर शरीर वाले थे। इत्यादि लक्षणों से अनजान व्यक्ति की पहचान कोई मुश्किल ordionianoramidnidiariorridoranidaridrinidiM५६Hdmirmiriimsardaridrinidiadridoranardan Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4