Book Title: Jain Tattva Kalika Vikas Purvarddha Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 3
________________ प्राकथन श्रीमान् उपाध्याय आत्माराम जी जैनमुनि प्रणीत "जैनतत्त्वकलिकाविकास" नासक पुस्तक का मैंने आरम्भ से लेकर समाप्ति पर्यन्त अवलोकन किया । यद्यपि अनेक लेख सम्बन्धिकार्यों में व्यग्र होने के कारण पुस्तक का अक्षरश. पाठ करने के लिये अवसर नहीं मिला तथापि तत्तत्प्रकरण के सिद्धान्तों पर भले प्रकार दृष्टि दी गई है, और किसी २ स्थल का अक्षरश. पाठ भी किया है पुस्तक के पढने से प्रतीत होता है कि पुस्तक के रचयिता जैनसिद्धान्तों के ही केवल अभिज्ञ नही प्रत्युत जैन आकर ग्रन्थों के भी विशेष पण्डित हैं क्योंकि-जिन "नयकर्णिका" आदि ग्रन्थों में अन्य दर्शनों का खण्डन करते हुए जैनाभिमत नयों का स्वरूप वर्णन किया है उनके विशेष उद्धरण इस ग्रन्थ में सन्दर्भ की अनुकूलता रखते हुए दिये गये हैं । यह प्रन्थ नौ कलिकाओं में समाप्त किया गया है। तथाहि-- म कलिका में देवों का स्वरूप वर्णन करते हुए "अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभाक्ति प्रवचने भावना" इत्यादि से तीर्थङ्कर स्वरूप तथा उस पद की प्राप्ति आदि को दर्शाया गया है । श्य कलिकता में "धर्मदेव" किसे कहते हैं ऐसा प्रश्न उठाकर गुरु, आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि के स्वरूप, १ उचित राति से निरूपण किया गया है जिसके जाने विना निराश्रित आत्मा अपने कल्याण मार्ग से सर्वथा भ्रष्ट रह कर संसारचक्र से मुक्त नहीं हो सका । ३य कलिका में धर्म स्वरूप का निरूपण करते हुए ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म, पाखण्डधर्म, कुलधर्मादि का स्वरूप भी उत्तमरीति से स्पष्ट किया है, एवं चतुर्थी कलिका में सामान्य गृहस्थ धर्म का स्वरूप, पञ्चमी कलिका में विशेष रूप से गृहस्थ धर्म का स्वरूप, षष्ठी कलिका में अस्तिकाय तथा दशविध धर्म का स्वरुप, सप्तमी कलिका में लोक स्वरूप निरूपण, अष्टमी कलिका में परमपुरुषार्थभूत मोक्ष का अत्यन्त स्फुट करके वर्णन किया है। नवमी कलिका में परिणाम 'पद अर्थात् जीव के परिणाम पर्यायों का स्वरूप भी उत्तम रीति से दर्शाया गया है। ग्रन्थ कर्ता ने इस बात का भी बहुत ही ध्यान रखा है कि जो ग्रन्थों के उद्धरणों का ठीक २ (निर्देश कर दिया है आजकल यह परिपाटी पाठ करने वालो के लिए बहुत ही लाभप्रद तथा कर्ता की योग्यता पर विश्वास उत्पन्न करने वाली देखी गई है । नि सन्देह यह ग्रन्थ जैन अजैन दोनों के लिए बहुत ही लाभकारी प्रतीत होता है। इस लघुकाय ग्रन्थ के पढने से जैन प्रक्रिया का सिद्धान्तरूप से ज्ञान हो सका है। मेरे विचार में तो ग्रन्थ के रचयिता को बहुत काल पर्यन्त शास्त्र का मनन करने से वहुदर्शिता तथा बहुश्रुतत्व का लाभ हुआ होगा परन्तु यदि कोई भले प्रकार इस ग्रन्थ का मनन कर ले तो उसको अल्प आयास द्वारा जैन सिद्धान्त प्रक्रिया का वोध हो सका है । पाठकों को चाहिए कि अवश्य ही न्यूनातिन्यून एकवार इसका परिशीलन करके कर्ता के प्रयत्न से लाभ उठावें, विशपत. जैनमात्र को इस प्रयत्न से अपना उपकार मानना अत्यावश्यक प्रतीत होता है । यदि इस प्रन्थ को किसी जैन पाठशाला में पाठ्यप्रणाली के अन्तर्गत किया जावे तो वहुत अच्छा मानता हूं, कार्यान्तर में व्यग्र होने से इसका अधिक महत्त्व लिखने में असमर्थ हूं। विद्वदनुचरतो० १०-४-३२ ई. कवितार्किक नृसिंहदेव शास्त्री, प्रोफैसर श्रौरियेण्टल कौलेज लाहौर ) दर्शनाचार्य।Page Navigation
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