Book Title: Jain Tark me Anuman
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
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• यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
और जिसमें व्यापकता होती है उसकी प्रसिद्धि होती है। श्रीधराचार्य के अनुसार- किसी एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ स्वभावतः जो संबंध अवधारित किया जाता है, वही उपाधिशून्य व नियत होने के कारण नियम अर्थात् व्याप्ति कहलाता है९६६ । इसका मतलब है कि व्याप्ति को उपाधिशून्य होना चाहिए किन्तु प्रश्न उठता है कि उपाधि क्या है? इसके संबंध में नव्यन्याय के गंगेश उपाध्याय का मत है कि जिससे व्याभिचार ज्ञान होता है वह उपाधि है। इसकी उपस्थिति में व्याप्ति की कोई निश्चित जानकारी नहीं हो सकती है। धूम और अग्नि के बीच संबंध बताया जाता है और धूम को देखकर अग्नि का अनुमान किया जाता है। किन्तु धूम और अग्नि के बीच स्वाभाविक संबंध नहीं है । जहाँ धूम है वहाँ अग्नि होती है, किन्तु जहाँ अग्नि होती है, यह आवश्यक नहीं है कि वहाँ धूम ही । गर्म लोहे में अग्नि तो होती है, किन्तु धूम नहीं होता है। यदि धूम और अग्नि में स्वाभाविक संबंध होता तो दोनों सर्वदा साथ रहते। धूम इसलिए होता है कि लकड़ी में गीलापन होता है। यह गीलापन ही धूम का कारण है अथवा अग्नि और धूम का संबंध बताने वाली उपाधि है।
मीमांसा - प्रभाकर के अनुसार दो वस्तुओं के बीच जो अव्यभिचरित एवं नियत कार्य-कारण-भाव संबंध होते हैं, उन्हीं को सद्हेतु या व्याप्ति कहते हैं।
सांख्य - व्याप्ति को परिभाषित करते हुए महर्षि कपिल ने कहा है१०७ - नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्ति अर्थात् नियतंधर्मसाहचर्य ही व्याप्ति है। अर्थात् साध्य और साधन के बीच पाया जाने वाला संबंध यदि नियत और व्यभिचार - रहित है तो उसी को व्याप्ति के नाम से जानते हैं।
योग - इस दर्शनपद्धति में व्याप्ति के लिए संबंध शब्द का प्रयोग हुआ है और वह संबंध क्या है उस पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है१०८-- अनुमेयस्यतुल्यजातीये स्वनुवृत्तौ भिन्नजातीयेभ्यो व्यावृत्तः संबंध: अनुमेयः अर्थात् जिसका हम अनुमान कर रहे हैं, के साथ समान जाति में अनुवृत्ति तथा भिन्न जाति में व्यावृत्ति रखता हो उसे संबंध कहते हैं । अनुवृत्ति अनुकूलता को दर्शाती है तथा व्यावृत्ति प्रतिकूलता को । इससे यह स्पष्ट होता है कि व्याप्ति स्वजातीय में अनुकूलता तथा विजातीय में प्रतिकूलता का बोध कराती है।
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वेदान्त दर्शन - वेदान्त परिभाषा में व्याप्ति के संबंध में ऐसी उक्ति मिलती है९०९ - - व्याप्तिश्चाशेषसाधनाश्रयाश्रिता साध्यसामानाधिकरण्यरूपा । इसमें तीन बातें प्रस्तुत की गई हैं- (१) साध्य के साथ हेतु के संबंध को व्याप्ति कहते हैं जो अशेष यानी सकल, साधनों में रहने वाला हो। इस तरह यह कहा जा सकता है कि सकल साधनों में रहने वाले साध्य के साथ हेतु का सामान्याधिकरण्य ही व्याप्ति है।
बौद्ध-दर्शन - दिङ्नाग ने सद्हेतु पर प्रकाश डाला है उसी से हेतु और साध्य के बीच देखी जाने वाली व्याप्ति की भी जानकारी हो जाती है। किन्तु कर्णगोमिनं व्याप्तिः को स्पष्टतः व्यक्त करने का प्रयास किया है। उन्होंने व्याप्ति के लिए अविनाभाव शब्द का प्रयोग किया है। एक के अभाव में दूसरे का भी अभाव अविनाभाव संबंध होता है, साध्य-धर्म के अभाव में कार्य स्वभाव लिङ्गों (चिन्हों) का न पाया जाना अविनाभाव या व्याप्ति है९१०। इसको यदि दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि साध्य के अभाव में साधन का अभाव या साधन के अभाव में साध्य का अभाव अविनाभाव है जिसे व्याप्ति या व्याप्ति का लक्षण मानते हैं।
जैन दर्शन जैन प्रमाण में व्याप्ति के लिए अविनाभाव तथा अन्यथानुपपत्ति शब्द भी आए हैं। व्याप्ति के संबंध में माणिक्यनन्दी ने कहा है१११ - इयमस्मिन् सत्येव भवत्यसति तु न भवत्येव ।
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यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च । ।
अर्थात् अमुक के होने पर ही अमुक होता है और नहीं होने पर नहीं होता है उसे अविनाभाव या व्याप्ति कहते हैं, जैसे अग्नि के होने पर ही धूम होता है और अग्नि के नहीं रहने पर धूम नहीं होता है। यदि साध्य के अभाव में साधन अथवा साधन के अभाव में साध्य हो तो दोनों में व्याप्ति नहीं हो सकती, भले ही उसका आभास क्यों न ज्ञात हो । देवसूरि ने व्याप्ति को त्रिकोणवर्ती कहा है अर्थात् यह भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों ही के लिए होती है। ऐसा नहीं देखा जाता कि कोई व्याप्ति भूतकाल में तो थी किन्तु वर्तमान में नहीं है अथवा वर्तमान में है किन्तु भविष्य में इसके होने की आशा नहीं है । व्याप्ति के संबंध में आचार्य हेमचंद्र के विचार को डा. कोठिया ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में रखा है- - व्याप्ति, व्याप्य और व्यापक दोनों का
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