Book Title: Jain Tark me Anuman
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 17
________________ विद्वान् लोग परार्थमान कहते हैं । यहाँ पर दो बातें कही गई हैं-(क) स्वनिश्चय अर्थात् स्वयं को ज्ञान देना इसे स्वार्थानुमान कहा जाता है। (ख) परार्थमान अर्थात् परार्थानुमान का अर्थ है ज्ञान। आगे इन्होंने परार्थानुमान को परिभाषित किया है १२४ उस हेतु का जो साध्य के अभाव में कभी भी नहीं होता, प्रतिपादन करने वाला वचन परार्थानुमान के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार सिद्धसेन ने अनुमान के दो प्रकारों पर प्रकाश डाला है। अकलंक अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों के द्वारा अनुमान भेद के संबंध में दिए गए विचारों का अकलंक ने खण्डन किया है। उन्होंने अनुमान के त्रिविध, चतुर्विध तथा पंचविध रूपों को गलत बताया है। क्योंकि उनमें अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्तिदोष देखे जाते हैं। अकलंक के विचार का अध्ययन करने के बाद डा. कोठिया ने कहा है-- निष्कर्ष यह है कि अन्यथानुपपन्नत्वविशिष्ट ही एक हेतु अथवा अनुमान है। वह न त्रिविध है न चतुर्विध आदि । अतः अनुमान का त्रैविध्य और चातुर्विध्य उक्त प्रकार से अव्याप्त एवं अतिव्याप्त है। अकलंक के इस विवेचन से प्रतीत होता है कि अन्यथानुपपन्नत्व की अपेक्षा से हेतु एक ही प्रकार का है और तब अनुमान भी एक ही तरह का संभव है १२५ । यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन - - विद्यानन्द - विद्यानन्द के अनुसार अनुमान के तीन भेद हैं १२६ (क) वीतानुमान -- वह अनुमान जो विधि रूप अर्थ का परिचायक है शब्द अनित्य है क्योंकि उत्पन्न होना इसका धर्म है। (ख) अवीतानुमान -- -- वह अनुमान जो निषेध रूप अर्थ का बोध कराता है जैसे जीवित शरीर को आत्मविहीन नहीं कह सकते, क्योंकि उसमें प्राण का संचार होता है। Jain Education International (ग) वीतावीतानुमान --जो विधि और निषेध दोनों ही रूपों में ज्ञान प्रदान करता है । वह पर्वत अग्नि युक्त है, निरग्नि नहीं है, क्योंकि धूमयुक्त है। इसके अतिरिक्त विद्यानन्द ने अनुमान के त्रिविध रूपोंपूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट को अव्यापक मानते हुए चौथे अनुमान का भी प्रतिपादन किया है जिसे उन्होंने कारणकार्योभयानुमान की संज्ञा दी है। इसमें कारण से कार्य और कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है - बीज और अंकुर | बीज कारण है और अंकुर कार्य, क्योंकि बीज से अंकुर होता है । किन्तु अंकर से ही आगे चलकर बीज भी बनता है । इसलिए बीज के आधार पर अंकुर तथा अंकुर के आधार पर बीज के अनुमान किए जा सकते हैं१२७ । माणिक्यनन्दी माणिक्यनन्दी १२८ ने अनुमान के दो भेदों को प्रकाशित किया है- (क) स्वार्थानुमान --साधन के आधार पर साध्य के संबंध में ज्ञान कराने वाला जो अनुमान है, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। - (ख) परार्थानुमान --- जो ज्ञान स्वार्थानुमान के विषयबोध का प्रतिपादन करने वाले वचनों से होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। वादिराज वादिराज ने अनुमान का वर्गीकरण अपने ढंग से किया है। जो अन्य आचार्यों के द्वारा किए गए वर्गीकरणों से भिन्न है। पहले उन्होंने अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किया है १२९ - - गौण - जो अनुमान के कारण होते हैं। मुख्य - साधन और साध्य के अविनाभावी संबंध के आधार पर साध्य के संबंध में होने वाला ज्ञान । पुनः गौण को वादिराज ने तीन भागों में विभाजित अनुमान किया है-- स्मरण, प्रत्यभिज्ञा तथा तर्क । चूँकि ये अनुमान के कारण होते हैं, इसलिए इन्हें भी अनुमान कहा जा सकता है, किन्तु ये गौण अनुमान ही कहे जा सकते हैं, मुख्य अनुमान नहीं। इस संबंध में अन्य तार्किकों ने यह आशंका व्यक्त की है कि यदि स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को अनुमान मान लिया जाए, क्योंकि ये अनुमान के कारण हैं तो प्रत्यक्ष को भी अनुमान ही क्यों नहीं माना जाए। प्रत्यक्ष भी तो अनुमान का कारण है। इससे लगता है कि वादिराज द्वारा प्रतिपादित अनुमान का वर्गीकरण अन्य आचार्यों को स्वीकार्य नहीं है। प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, देवसूरि, हेमचन्द्र इन सभी ने अनुमान को स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान के रूपों में ही विभाजित किया है९३० । अनुमान के भेदों के संबंध में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है- For Private & Personal Use Only तद् द्विधा स्वार्थं परार्थच । स्वार्थस्वनिश्चितसाध्याविनाभावैकलक्षणात् साधनात् साध्यज्ञानम् १११ । 44] के कहे जाने ট66 www.jainelibrary.org

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