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(१७०) कषायको त्याग करे सुद्धलेशा चितधरे । हीरालाल कहे एसे स्थानकको आइये ॥२॥ जगत तारण जिनराज हैखलक जाण । अंनतगुणकी खान त्रिलोक्के धणी है । चौसट इंदर आय चरणे रहे लिपटाय । इन्द्राण्या नृत्य गीत हर्ष चित आणिये ॥ सुर ने असुर नर आते जाते हर्ष धर।। जगतारण जिनेश्वर अक्षय गुण ठाणी है ॥ सिद्धगति दायक नायक सहु साधुनके। हीरालाल कहे आदि अरिहंतको जाणिये.॥३॥ गुरु गुण कथन करत नहि आवे अंत । ज्ञानके सागर संत सदा सुखदाइ है ॥ करत उजास एसे सूर्य आकास तैसे । चंदहै सीतल जैसे तैसे रिख राई है ॥ आछोहि चारित्र देत किधो हे अनंत हेत ।