Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 9
________________ श्री समयसारजी की स्तुति हरिगीत ससारी जीवना भावमरणो टालवा करुणा करी, सरिता वाहवी सुधा तणी प्रभु वीर ! ते सजीवनी। शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी, मुनिकुन्द सजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी ।। अनुष्टुम् कुन्दकुन्द रच्य शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या, न थाधिराज ! तारामा भावो ब्रह्माडना भर्या । शिखरिणी अहो । वाणी तारी प्रशमरस-भावे नितरती, मुमुक्ष, ने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी। अनादिनी मूर्छा विप तणी स्वराथी उतरती, विभावेथी थभी स्वरूप भणी दोडे परिणती। शार्दलविक्रीड़ित तूं छ निश्चयग्रन्थ, भग सघला व्यवहारना भेदवा, तूं प्रज्ञाछोणी ज्ञान ने उदयनी सधि सहु छेदवा। साथी साधकनो, तूं भानु जगनो, सन्देश महावीरनो, विसामो भवरलातना हृदयनो तूं पथ मुक्ति तणो ।। बमसतिलका सूण्ये तने रसनिवध शिथिल थाय, जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणा जणाय । तूं रचता जगतनी रुचि आलसे सी, तूं रीझता सकलजायकदेव रीझे । अनुष्टुप वनावू पत्र कुन्दनना, रत्नोना अक्षरो लखी, तथापि कुन्दसूत्रोना काये मूल्य ना कदी ।।

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