Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 18
________________ (८) व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है। उसे "ऐसे है नही, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है"--ऐसा जानना । इस प्रकार जानने का नाम ही दोनो नयो का ग्रहण है। प्रश्न २३-कुछ मनीषी ऐसा कहते हैं कि "ऐसे भी है और ऐसे भी है" इस प्रकार दोनो नयो का ग्रहण करना चाहिये; क्या उन महानुभावो का कहना गलत है ? उत्तर-हा, विल्कुल गलत है, क्योकि उन्हे जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता नही है तथा दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी है और ऐसे भी है" इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनो नयो का ग्रहण करना नहीं कहा है। प्रश्न २४-व्यवहारनय असत्यार्थ है। तो उसका उपदेश जिनमार्ग मे किसलिये दिया ? एक मात्र निश्चयनय ही का निरूपण करना था। उत्तर-ऐसा हो तर्क समयसार मे किया है। वहाँ यह उत्तर दिया है-जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा विना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नही है, उसी प्रकार व्यवहार के विना (ससार मे ससारी भाषा विना) परमार्थ का उपदेश अशक्य है । इस लिये व्यवहार का उपदेश है। इस प्रकार निश्चय का ज्ञान कराने के लिये व्यवहार द्वारा उपदेश देते है। व्यवहारनय है, उसका विषय भी है, परन्तु वह अगीकार करने योग्य नही है। प्रश्न २५-व्यवहार विना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं होता है। इसके पहले प्रकार को समझाइए ? उत्तर-निश्चय से आत्मा पर द्रव्यो से भिन्न स्वभावो से अभिन्न स्वयसिद्ध वस्तु है। उसे जो नही पहचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तब तो वे समझ नहीं पाये। इसलिये उनको व्यवहारनय से शरीरादिक पर द्रव्यो की सापेक्षता द्वारा नर-नारक

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