Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 01
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ स्वीकार करने का साहस न हुआ किन्तु अन्तमें लाचार होकर वह कार्य हाथ में लेना ही पड़ा । सन १९२५ में कार्य प्रारम्भ हुआ। आशा की गई थी कि कुछ मासमें ही कार्य समाप्त हो जावेगा। किन्तु कार्य बड़ा होने व मेरे अलाहाबाद से अमरावती आ जाने के कारण वह आशा पूर्ण न हो सकी। अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हुई और समय बहुत लग गया। किन्तु हर्षका विषय है कि अन्ततः कार्य निर्विन पूर्ण हो गया। राइस साहब के संग्रह के १४४ लेखों की, श्रीयुक्त बाबू सूरजभानुजी वकील द्वारा कारी की हुई और पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा शुद्ध की हुई एक प्रेस कापी मुझे पं० नाथूरामजी द्वारा प्राप्त हुई। प्रथम यह विचार हुआ कि इन्ही लेखों में नये संस्करण के कुछ चुने हुए लेख सम्मिलित कर प्रथम संग्रह प्रकाशित कर दिया जाय । किन्तु सूक्ष्म विचार करने पर यह उचित न जचा । किसी न किसी दृष्टिले सभी लेख आवश्यक अँचने लगे व लेखों का पाठ नये संस्करण के अनुसार रखना आवश्यक प्रतीत हुआ। प्रस्तुत संग्रह में बड़े परिश्रम से पाठ शुद्ध कर उसे सर्वप्रकार मूलक अनुसार ही रक्खा है। पञ्चमाक्षर भी मूलके अनुसार हैं यद्यपि इससे कहीं कहीं शब्दों के रूप अपरिचित से हो गये हैं। किन्तु छापे की कठिनाई के कारण कनाड़ी भाषा के कुछ वर्गों का भिन्न स्वरूप यहाँ नही दर्शाया जा सका । उदाहरणार्थ, e, é को यहां 'ए',0, 6 को 'ओ' r, r को 'र' व 1, 1, 1. को 'ल' से ही सूचित किया है। प्रूफ-शोधन में यथाशक्ति कसर नही रक्खी गई किन्तु फिर भी कुछ छोटी मोटी अशुद्धियाँ आ ही गई हैं। उल्लेख के सुभीते के लिये लेखों की श्लोक संख्या दे दी गई है। यह बात पूर्व संस्करणों में नहीं है। जहाँ पर प्रथम और द्वितीय संस्करण के पाटोंमें कुछ विचारणीय भिन्नता ज्ञात हुई वहाँ दूसरा पाठ फुटनोटमें दे दिया गया है। बहुत अच्छा होता यदि लेखों का पूरा अनुवाद दिया जा सकता किन्तु इससे ग्रंथका आकार बहुत बढ़ जाता । अतएव जिन लेखों में थोड़ी भी कनाड़ी आई है उनका हिन्दी भावार्थ देकर ही संतोष करना पड़ा है। प्रथम १४४ लेख राइस साहब के क्रमानुसार रखकर पश्चात् का क्रम स्वतंत्रतासे चालू रक्खा गया है। कोष्टक में नये संस्करण के नम्बर दे दिये गये हैं जिससे आवश्यकता होने पर पहले व दूसरे संस्करण से प्रसंगोपयोगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 662