Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 01
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 14
________________ प्राथमिक वक्तव्य श्रवण बेल्गोल के शिलालेख सबसे प्रथम मैसूर सरकार की कृपासे सन् १८८९ में प्रकाशित हुए थे। मैसूर पुरातत्त्वविभाग के तत्कालीन अधिकारी लूइस राइस साहब ने उस समय श्रवण बेल्गुल के १४४ लेखों का संग्रह प्रकाशित किया। इस संग्रह की भूमिका में राइस साहबने पहले पहल इन लेखों के साहित्य-सौन्दर्य व ऐतिहासिक महत्व की ओर विद्वत्समाज का ध्यान आकर्षित किया व चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु वाले प्रश्न का विस्तृत विवेचन कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि चन्द्रगुप्त ने यथार्थतः भद्रबाहु मुनिसे दीक्षा ली थी व लेख नं. १ उन्ही का स्मारक है। तबसे इस प्रश्न पर विद्वानों में बराबर वादविवाद होता आया है। उक्त संग्रह का दूसरा संस्करण अभी सन् १९२२ इस्वी में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह के रचयिता प्राक्तन विमर्षविचक्षण राव बहादुर आर० नरसिंहाचारजी हैं, जिन्होंने श्रवणबेलगोल के सब लेखों की पुनः सूक्ष्मतः जाँच की व परिश्रमपूर्वक खोज काके अन्य सैकड़ों लेखों का पता लगाया। इस संस्करण में उन्होंने पांच सौ लेखों का संग्रह किया है व एक विस्तृत व विशद भूमिका में वहाँ के समस्त स्मारकों का वर्णन व लेखों के ऐतिहासिक महत्त्व का विवेचन किया है। किन्तु ये संग्रह कनाड़ी व रोमन लिपिमें प्रकाशित किये जाने व बहुमूल्य होनेके कारण बहुतसे इतिहासप्रेमियों को उनसे कुछ लाभ न हो सका और अधिकांश जैन लेखक इनका उपयोग न कर सके । वास्तवमें इन लेखोंका परिशीलन किये बिना आजकल जैन साहित्यिक, धार्मिक व राजनैतिक इतिहास के विषयमें कुछ लिखना एक प्रकारसे अनधिकार चेष्टा है, क्योंकि ये लेख प्रायः समस्त प्राचीन दिगम्बर जैनाचार्यों के कृत्यों के प्राची. नतम ऐतिहासिक प्रमाण हैं। इस प्रकार के समस्त उपलब्ध जैन लेख जब तक संग्रह रूपमें प्रकाशित न हो जायगे तबतक प्रामाणिक जैन इतिहास संतोषजनक रीति से नहीं लिखा जा सकता। इसी आवश्यकता की भावना से प्रेरित होकर श्रीयुक्त पं० नाथूरामजी प्रेमी ने सन् १९२४ में उक्त लेखोंका देवनागरी संस्करण तैयार करने का मुझसे अनुरोध किया। प्रथमतः कार्य के भार का ध्यान करके मुझे इसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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