Book Title: Jain Shastro me Ahar Vigyan
Author(s): N L Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान २६९ इनका भी परिवेश से अन्तर्ग्रहण आहार कहलाता है। इस दृष्टि से जैनों की 'आहार' शब्द की परिभाषा, आज की वैज्ञानिक परिभाषा से, पर्याप्त व्यापक मानना चाहिये। इसमें भौतिक द्रव्यों के साथ भावनात्मक तत्वों का अन्तर्ग्रहण भी समाहित किया गया है। इसलिये आहार के शारीरिक प्रभावों के साथ मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी जैन शास्त्रों में प्राचीन काल से ही माने जाते हैं। आहार विशेषज्ञों ने आहार के भावनात्मक प्रभावों से सह-सम्बन्धन की पुष्टि पिछली सदी के अन्तिम दशक में ही कर पाई है। आहार की आवश्यकता, लाभ या उपयोग : वैज्ञानिक परिभाषा जैन आचार्यों ने प्राणियों के लिये आहार की आवश्यकता प्रतिपादित करने हेतु अपने निरीक्षणों को निरूपित किया है। उत्तराध्ययन में बताया है कि आहार के अभाव में शरीर काकजंघा तृण के समान दुर्बल हो जाता है, धमनियां स्पष्ट नजर आने लगती हैं। भखे रहने पर प्राणी की क्रियाक्षमता घट जाती है। मूलाचार के आचार्य" ने देखा कि आहार की आवश्यकता दो कारणों से होती है : (i) भौतिक और (ii) आध्यात्मिक । वस्तुतः भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति से ही आध्यात्मिक लक्ष्य सधता है, "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं"। इन्हें सारणी २ में दिया गया है। सारणी २ : आहार के शात्रीय एवं वैज्ञानिक लाभ (अ) भौतिक लाभ : शाखीय दृष्टिकोण शानिक दृष्टिकोण (i) शरीर में बल (ऊर्जा) बढ़ता है। (i) आहार शरीर की मूलभूत एवं विशिष्ट क्रियाबों में सहायक होता है। (ii) जीवन का आयुष्य बढ़ता है। (ii) यह शरीर कोशिकाओं के विकास, संरक्षण व पुनर्जनन ____ में सहायक होता है। (iii) शरीर-तंत्र पुष्ट (कार्यक्षम) रहता है। (iii) यह रोग प्रतीकारक्षमता देता है। (iv) शरीर की कांति बढ़ती है। (iv) शरीर की कार्यप्रणाली को संतुलित एवं नियंत्रित करता है। (v) जीवन सुस्वादु होता है। (v) यह शरीर क्रियाओं को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है । (vi) भूख की प्राकृतिक अभिलाषा शांत होती है। (vii) दशों प्राण सन्धारित रहते हैं। (viii) आहार औषध का कार्य भी करता है । (ix) इससे दूसरों की वैयावृत्य को जा सकती है । (x) इससे तप और ध्यान में सहायता मिलती है । (ब) आध्यात्मिक लाभ (१) यह चरम आध्यात्मिक लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्ति का साधन है। (२) यह धर्मपालन के लिये आवश्यक है। (३) इससे ज्ञानप्राप्ति में सरलता होती है। आशाघर के अनुसार, शरीर को स्थिति के लिये आहार आवश्यक है। स्थानांग' 3 में आहार से मनोज्ञता, रसमयता, पोषण, बल, उद्दीपन और उत्तेजन की बात कही है। ज्ञारीरिक बल पुष्टि, कान्ति और रोग-प्रतीकार क्षमता का ही प्रतीक है । स्वामिकुमार तो क्षुधा और तृषा को प्राकृतिक व्याधि ही मानते हैं। उनके अनुसार आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12