Book Title: Jain Shastro aur Mantra vidya
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 7
________________ पं० अंबालाल प्रेमचन्द शाह : जैनशास्त्र और मंत्रविद्या : 776 7 विद्वषण कर्म-आग्नेयदिशा, मध्याह्नकाल, प्रवालमुद्रा, कुक्कुटासन हुँ' पल्लव, धूम्रवस्त्र, धूम्रपुष्प, रेचकयोग, पुत्रजीव मणि की माला, तर्जनी अंगुली, दाहिना हाथ और वायु मंडल से करें. 8. उच्चाटन कर्म-वायव्यदिशा, तीसरा प्रहर, प्रवाल मुद्रा, कुक्कुटासन, 'फट' पल्लव, धूम्रवस्त्र, धूम्रपुष्प, रेचक योग, काले मणिओं की माला, तर्जनी अंगुली, दाहिना हाथ और वायु मंडल से करे. मंडल-चार प्रकार के यंत्र-मंडल इस प्रकार हैं--- 1. पृथ्वीमण्डल-पीला, चतुष्कोण, पृथ्वीबीज 'ल' 'क्षि' चार कोनों में लिखें और बीच में मंत्र स्थापन करें. 2. जलमंडल-श्वेत, कलश समान गोल, जलबीज 'व' 'प' चार कोने में लिखें, और बीच में मंत्र स्थापन करना ___चाहिए. 3. अग्निमण्डल-लाल, त्रिकोण, उसके तीन कोनों में बाहर की ओर स्वस्तिक की आलेखना करें और अन्दर की ओर 'र' 'ओं' बीज लिखें. बीज में मंत्र स्थापन करें. 4. वायुमण्डल-काला, गोलाकार बनावें, वायुबीज 'य' 'स्वा' भीतर की ओर लिखें और बीच में मंत्र स्थापन करें. प्रत्येक मंत्र के अन्त में 'नमः' पल्लव लगाने से मारण आदि उग्र स्वभावी मंत्र भी शांत स्वभाव वाले बन जाते हैं और 'फट' पल्लव लगाने से क्रूर स्वभाव वाले बन जाते हैं. दीपन आदि प्रकार-दीपन से शांति कर्म, पल्लव से वशीकरण, रोधन से बंधन, ग्रथन से आकर्षण, और विदर्भण से स्तंभन कार्य किये जाते हैं. ये छः प्रकार प्रत्येक मंत्र में प्रयुक्त हो सकते हैं. उनके सोदाहरण लक्षण नीचे लिखे अनुसार हैं१. मन्त्र के प्रारम्भ में नाम स्थापन करना वह दीपन उदाहरण—देवदत्त ह्री. 2. मंत्र के अन्त में नाम निर्देश करना वह पल्लव. उदा०-ह्री देवदत्त. 3. मध्य में नाम बताना वह संपुट. उदा०-ह्री देवदत्त ह्री. 4. आदि और मध्य में उल्लेख करना वह रोध. उदा०-दे ह्री व ह्रीं द ह्रीं त ह्री. 5. एक मंत्राक्षर, दूसरा नामाक्षर, तीसरा मंत्राक्षर-इस प्रकार संकलन करना प्रथन. उदा०-ह्रीं दे ह्रीं व ह्री द ह्रीं त ह्रीं. 6. मंत्र के दो-दों अक्षरों के बीच में एकेक नामाक्षर उसके क्रम से रखना विदर्भण. ___ उदा०-ह्रीं त्त ह्रीं द ह्री व ह्रीं दे ह्री. यहां हमने ही बीजाक्षर मंत्र द्वारा उदाहरण दिये हैं परन्तु दूसरे बीजाक्षरों से भी दीपन आदि प्रकार उसी प्रकार समझ लेना चाहिए. इन सब हकीकतों से साधक को मंत्र की साधना में हताश नहीं होना चाहिए. बीज, भूमि, पवन, वातावरण आदि शुद्ध हों तो उसका फल भी शुद्ध ही मिलता है. मंत्र और उसकी साधना की शुद्धि के लिए इतनी कसौटी आवश्यक है. सावधानी और भावनाशुद्धि हो तो यह विधि सरल बन जाती है और सिद्धि प्राप्त करने में कठिनाई नहीं पड़ती. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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