Book Title: Jain_Satyaprakash 1954 05
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवर्तिनी मेरुलक्ष्मी केस्तोत्र सं. पू. उपा. विनयसागरजी साहित्याचार्य, दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न, काव्यतीर्थ तथा शास्त्रविशारद प्रस्तुत दोनों स्तोत्रोंकी प्रणयित्री प्रवर्तिनी मेरुलक्ष्मी गणिनी साध्वी हैं। मेरे संग्रहकी ६ पत्रों की प्रति जो अनुमानतः १६ वीं शताब्दिकी लिखी हुई है, उसमें चार स्तोत्र अञ्चलंगच्छेश शीलरत्नसूरिकृत हैं, और दो प्रवर्तिनी मेरुलक्ष्मी गणिनीके । अतः संभवतः रचयित्रीका समय १६ वीं शती या तत्पूर्व है, और प्रवर्तिनी अंचलगच्छकी ही होंगी ! इनके सम्बन्धमें विशेष कुछ भी ज्ञात नहीं है। 'प्रवर्तिनी, गणि' शब्द होने से इतना तो स्पष्ट है कि साध्वी महोदया गणनायिका अवश्य थी और यह रचना उनकी प्रौढावस्था की ही है। । ये दोनों स्तोत्र आदिनाथ और तारंगामण्डन अजितनाथके हैं। ७ और ५ पद्य संख्याकी दृष्टि से तो स्तोत्र बहुत ही छोटे हैं परन्तु लघुकाय होते हुए भी सरस और प्रवाहपूर्ण है, इनकी भाषा भी प्राञ्जल है । प्रथम स्तोत्रमें द्रुतविलंबित, वंशस्थ, वसन्ततिलका और शार्दूलविक्रीडित आदि छन्दोंकी योजना होनेसे मालूम होता है कि प्रणयित्री छन्दःशास्त्र ओर साहित्यशास्त्रकी भी विदुषी थी। १. आदिनाथ-स्तवनम् । सकलमङ्गलदं रुचिरच्छविं, दुरितशैलविभेदनसत्पविम् । जिनवरं नृपनामितनुरुहं, विपुलसौख्यकरं प्रणमाम्यहम् ॥१॥ स्वर्णाभं गुणभासुरं धृतशमं ज्ञानश्रियालङ्कृतं, सम्यक्पुण्यपथप्ररूपणपरन्यायव्रतत्यम्बुदम् । शक्रवातसुसेव्यमानचरणाम्भोजद्वयं सन्ततं, वन्देऽहं त्रिजगद्गुरुं गुरुतरं मोहान्धकारे रविम् ॥२॥ निखिलसौख्यमहार्णवसद्विधु, गुणसितच्छदखेलनमानसम् । प्रशमसिन्धुरवन्ध्यमहीधरं, जिनपतिं प्रणमामि वृषाङ्कितम् ॥३॥ यशः श्रिया निर्जितचन्द्रदीधिति, ध्यानामलञ्चालितकर्मसन्ततिम् । नीरागतादूरितभावविद्विषं, सेवे युगादीशजिनं महात्विषम् ॥४॥ For Private And Personal Use Only

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