Book Title: Jain_Satyaprakash 1953 08
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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અંક : ૧૧ ] સાધુચન્દ્રકૃત તીર્થરાજ ચિત્યપરિપાટીકા સમય [૨૧૩ जिनालय जो चउवीसटाजी नामसे प्रसिद्ध था, वि० सं० १५७१ में राव बीकाजीके राजकालमें प्रतिष्ठित हुआ तथा दूसरा श्रीमहावीर जिनालयका निश्चित समय तो मालूम नहीं हुआ पर इस मंदिरकी प्रतिष्ठाके थोडे वर्ष बाद हो उसके बननेका उल्लेख लुंकागच्छकी पट्टावलीमें आता है। तीसरा भव्य जिनालय “ त्रैलोक्यदीपक भांडासर" सं० १५७१ में प्रतिष्ठित हो चुका था उसका उल्लेख इस चैत्यपरिपाटीमें नहीं आनेसे इसका रचनासमय वि० सं० १५६१ से सं० १५७१ के मध्यका निश्चित होता है। इसके अन्तिम पद्यमें “बहु संघ साथइ देवराजइ वच्छराज नमंसिया" पाठ है । इन संघपति देवराज बच्छराजकी शत्रुजययात्राके सम्बन्धमें अन्वेषण करने पर 'कर्मचंद्रमंत्रिवंशप्रबंध में मंत्रीश्वर कर्मचंद्रके पूर्वज श्रीवच्छराज व देवराज सिद्ध होते हैं । उल्लेख इस प्रकार हैं:
"तत्पुत्राः सुपवित्रा त्रयोऽभवंस्तेषु बच्छराजाख्यः।
प्रथमोऽथ देवराजो, गुणाद्वितीयो द्वितीयोऽभवत् ॥ ९९ ॥" वच्छराजको शत्रुजययात्राका उल्लेख भी इसी ग्रंथके १३७ वें श्लोकमें प्राप्त होता है
"परभूमिपंचानन बिरुदं, सन्प्राप्तवान् स भाग्येन ।
कृतसंघः शत्रुजयशैलादिषु संव्ययद्यात्राम् ॥१३७॥" उपर्युक्त विवेचन और उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि यह चैत्यपरिपाटी वि० सं० १५६५ के आसपासकी है और इसमें उल्लिखित देवराज बच्छराज दोनों बीकानेरके बोहित्थरा वंशके सुप्रसिद्ध नरपुंगव थे जिनका बीकानेर वसानेमें भी पूरा हाथ था व वच्छावतवंश इन्हींकी खानदान हैं। बच्छराज बीकानेर वसानेवाले प्रथम राजा राव बीकाजीके प्रधान मंत्री थे। इनके विशेष कार्यकलाप जाननेके लिए "कर्मचंद्रमंत्रिवंशप्रबन्धवृत्ति" देखना चाहिए।
उपर्युक्त चैत्यपरिपाटी तत्कालीन जैन मंदिरोंके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण सूचना देती है। इसमें उल्लिखित राजस्थान व गुजरातस्थित कई स्थानोंके जैन मंदिर इस समय विद्यमान नहीं हैं। सिरोहीमें इसकी रचनासमय तक खरतरवसही शान्तिजिणंद, तीन चैत्य आदिनाथके व एक अजितनाथ प्रभुके कुल ५ मंदिर थे, बाकी पीछेके बने हुए हैं। इसी तरह जोधपुरके कुंथुनाथ विधिचैत्य, पार्श्वनाथ व शान्तिनाथ जिनालयका उल्लेख है, इसमें भी काफी परिवर्तन हो गया प्रतीत होता है । चैत्यपरिपाटीमें उल्लिखित जिनमंदिरोंमें कोई लेख आदि न हो पर अभी विद्यमान हो तो उनका निर्माणकाल भी इससे पूर्वका सिद्ध हो जाता है। मुनि चतुरविजयजीने छीपगवसहीको शिवा सोमजीकी ट्रंकसे अभिन्न लिखा है यह ठीक नहीं, छीपगवसति प्राचीन है जब कि शिवा सोमजीकी ट्रॅक सं० १६७७ में प्रतिष्ठित हुई थी। .
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