Book Title: Jain_Satyaprakash 1952 08
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 25
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ : १०-११] જિનલબ્ધિસૂરિ - જિનચ'દ્રસૂરિ વિવાહલઉ [ १८५ गृहीतव्रतः । उद्यतविहारी सं. १४०६ वर्षे माघ सुदि दशम्यां जैसलमेरौ राखेचा हाजी कारितं नंयां श्रीतरुणप्रभाचार्यदत्तसूरिपदः । स्तंभतीर्थे सं. १४१४ वर्षे प्राप्तस्वर्गतिः । अब प्रस्तुत रासका ऐतिहासिक सार दे कर यु. गुर्वावली से जो कुछ विशेष ज्ञातव्य मिलता है उसका दिग्दर्शन कराया जायगा । ( मरु) देशके कुसुमाण गाँवमें मंत्री केल्हा निवास करते थे। उनकी पत्नी सरस्वतीकी कुक्षिसे पातालकुमार का जन्म हुआ था और कुमार बड़े होने लगे। इधर दिल्लीनगर से रयपति संघपत्तिने शत्रुंजय तीर्थकी यात्रार्थ संघ निकाला । कुसुमाणेमें आने पर मंत्री केल्हा भी सपरिवार उसमें सम्मिलित हो गये । क्रमशः प्रयाण करता हुआ संघ शत्रुंजय पहुंचा । तीर्थपति ऋषभदेव प्रभुके दर्शन कर सबने अपना जन्म सफल माना । वहां गच्छनायक श्रीजिनकुशलसूरिका वैराग्यमय उपदेश श्रवण कर पातालकुमारको दीक्षा लेनेका उत्साह प्रगट हुआ पर माता से अनुमति प्राप्त करना कठिन था । अंतमें किसी तरह माताने प्रबोध पाकर आज्ञा दे दी और पातालकुमारके सूरिजीसे वासक्षेप दे कर उन्हें शिष्यरूपसे स्वीकार किया । यथासमय दीक्षाकी तैयारियाँ होने लगी । मंत्री केल्हाने चतुर्विध विधिसंघकी पूजा की, याचकजनोंको मनोर्वाछित दान दिया । पातालकुमारका वरघोड़ा निकला और वे व्रत श्रीसे हथलेवा जोड़ने (दीक्षा लेने) गुरुश्री के पास आये । गुरु महाराजने उसका दीक्षा कुमारी से विवाह करवा दिया ( दीक्षा दे दी ) । इस समय दिल्ली आदि नगरों की स्त्रियें मंगल गीत गाने लगी। गुरुवर जिनकुशलसूरिजीने आपका दीक्षा नाम जशोभद्र ( यशोभद्र ) रखा। श्रीअमीचंद्गणिके पास आपने विद्याध्ययन किया । यथासमय पढ़लिख कर योग्यता प्राप्त होने पर ( श्री जिनकुशलसूरि पट्टधर जिनपद्मसूरिके पट्टधर ) जिनलब्धिसूरिजी अपने अंतिम समय में यशोभद्रमुनिको अपने पद पर प्रतिष्ठित करनेकी शिक्षा दे गये । तदनुसार तरुणप्रभसूरिने सं. १४०६ माघ सुदि १० को जैसलमेर में आपको गच्छनायक पद पर प्रतिष्ठित किया । पाटमहोत्सव हाजी शाहने किया । आ. जिनचंद्रसूरि म. महावीरकी शासनधुराको धारण करते हुए पृथ्वीतल पर विहार करने लगे । कविने यहीं तकका वर्णन करते हुए विवाहला समाप्त किया है। इससे इसकी रचना १४०६ में होना विशेष संभव है । प्रस्तुत विवाहला में जिनचंद्रसूरिके जन्म संवत, दीक्षा संवत, स्वर्गवास संवतादिका उल्लेख नहीं है अतः यहाँ अन्य साधनोंसे विचार किया जाता है । १. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलीके अनुसार दिल्लीके सेठ रयपतिका संघ सं. १३८० में निकला था एवं संधके फलौधी आने पर कोशवाणाके मंत्री केल्हादि उसमें सम्मिलित हुए थे । आ. जिनकुशलसूरिजी पाटणसे संघमें सम्मिलित हुए थे। संखेश्वरादि तीर्थ होता हुआ संघ For Private And Personal Use Only

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