Book Title: Jain_Satyaprakash 1952 08
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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१८४ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ १५ : १७ ओंमें भी जमी हुई थी। अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराजकी सभामें पद्माभसे किया हुआ शास्त्रार्थ तो प्रसिद्ध है ही। ऐसे ही आपने अन्य ३६ वादोंमें विजय प्राप्त की थी। आपकी 'संधपट्टक' एवं 'पंचलिगी' पर विशद टीकायें प्रकाशित हैं । जिनपतिसूरिके शिष्यों में जिनपाल, सुमतिगणि, पूर्णभद्र आदि अनेकों ग्रन्थकार हुए । इनमेंसे जिनपाल उपाध्यायने युगप्रधानाचार्य गुर्वावलीमें वर्द्धमानसूरिसे लगाकर जिनेश्वरसूरि (सं. १३०५) तक इतिवृत्त बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिया है । इसकी पूर्ति भी किसी अन्य विद्वानने की है जिससे जिनपभसूरिजी (वि. सं. १३९३) तकका ऐतिहासिक वृत्तान्त बड़े विस्तारसे पाया जाता है। पर खेद है इसके परवर्ती इतिहासके साधन बहुत कम ही मिलते हैं। खासकर जिनलब्धिसूरिजीसे जिनभद्रसूरिजी तक बीचके ७५ वर्षाका इतिहास तो बहुत कुछ अंधकारमें है। जिनलब्धिसूरिजीके सम्बन्धमें 'सप्ततिका' व 'स्तवकलिका' रचे जानेका उल्लेख प्राप्त है पर जिस दो प्रतियोंसे इनके रचे जानेका पता चलता है उनमें से एक तो अभी अप्राप्त है। दूसरेके वे बीचके पत्र प्राप्त नहीं हुए जिनमें यह सप्ततिका लिखी हुई थी। सौभाग्यकी बात है इनके पट्टधर आचार्य जिनचंद्रसूरिजीके सम्बन्धमें मुनि सहजज्ञान रचित विवाहला जैसलमेर भंडारकी सं. १४३०में लिखित प्रतिमें हमें प्राप्त हो गया है । यद्यपि इसकी प्रारंभिक दो गाथायें प्रतिके पूर्वपत्रके न मिलनेसे प्राप्त न हो सकी फिर भी वस्तुछंदसे उन गाथाओंके विषयका परिज्ञान हो जाता है। कोई खास हरज नहीं हुआ। प्रस्तुत विवाहला एक सुन्दर काव्य है जिससे तत्कालीन भाषाका परिचय व सूरिजीका इतिहास मिलनेके साथसाथ काव्यकी मनोरम छटाका भी आभास मिलता है। ___हमने ऐसे ही कई अन्य काव्योंको अपने " ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में १३ वर्ष पूर्व प्रकाशित किये थे। फिर भी अभी बहुतसे ऐतिहासिक काव्य हमारे संग्रहमें अप्रकाशित अवस्थामें पड़े हैं। प्रस्तुत विवाहला खरतरगच्छ पट्टावलीकी एक तिमिराछिन्न गाथाको प्रकाशमें लाता है अतः इसे ही सर्व प्रथम प्रकाशित करना आवश्यक समझ इसीसे श्रीगणेश किया जा रहा है ।
खरतरगच्छकी प्राप्त पट्टावलियोंमें जिनलब्धसूरिके पट्टधर श्रीजिनचंद्रसूरिजीके सम्बन्धमें केवल २-३ पंक्तिकी लिखी मिलती है । यथा--'श्रीजिनचंद्रसूरीणां सं. १४०६ माध सित १० दिने जैसलमेरो श्रीमाल सा. हाजी कारित नंद्यां श्रीतरुणप्रभाचार्यैः पदं दत्तं । सं. १४१४ श्रीस्तंभतीर्थे स्वः प्राप्तानां कूपारामरमणीयप्रदेशे स्तूपनिवेशः ।”
भांडारकर इन्स्ट्रीटयूट पूनेसे हमने उ. जयसोमरचित “गुरुपर्वक्रम” नामक खरतर पट्टावली प्राप्त की है उसमें आपके वंश, जन्म व दीक्षा संवतका निर्देश विशेष है। यथा. ५२ । तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रसूरिः छाजहडगोत्रीयः १३८५ वर्षे संजातजनुः १३९० वर्षे
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