Book Title: Jain_Satyaprakash 1947 10
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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મેરુતુબસૂરિરાસ-સાર
[४१ वस्तिगकुमार दीक्षित हुए । वइरसिंहने उत्सब दानादिमें प्रचुर द्रव्य व्यय किया । सूरि महाराजने नवदाक्षित मुनिका नाम मेरुतुंग रखा ।
मुनि मेस्तुंग बुद्धि विचक्षणता से व्याकरण, साहित्य, छंद, अलंकार और आगम, वेद, पुगण प्रभृति समस्त विद्याओं के पारंगत पण्डित हो गये । वे शुद्ध संयम पालन करते हुए अमृत सदृश वाणीसे सरस व्याख्यानादि देते थे। श्रीम्हेन्द्रप्रभसूरिने इन्हें आचार्यपदके सर्वथा योग्य जान कर सं. १४२६में पाटणमें सूरिपदसे अलंकृत किया। संघपति नरपालने नंदि महोत्सव, दानादि किये । तदनन्तर मेरुतुंगमूरि देश विदेशमें विचर कर उपदेशोंद्वारा भव्य जीवों को एवं नरेन्द्रादि को प्रतिबोध देने लगे। आसाउलीमें यवनराज को प्रतिबोधित किया। सं. १४४४का चातुर्मास लोलाडइमें किया, वहां राठौड वंशा फणगर मेघ राजाको १०० मनुष्यों के साथ धर्ममें प्रतिबोधित किया।
एक वार सूरिजी सन्ध्यावश्यक कर कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित खड़े थे कि एक काले सांपने आ कर पैरमें डस दिया । सूरि महाराज मेतार्य, दमदन्त, चिलातीपुत्रको तरह ध्यानमें स्थिर रहे । कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर मन्त्र, यन्त्र, गारुडीक सब प्रयोगोंको छोड़कर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के समक्ष ध्यानासन जमा कर बैठ गये । ध्यान के प्रभावसे सारा विष उतर गया। प्रातःकाल व्याख्यान देने के लिए आये । संघमें अपार हर्षध्वनि फैल गयी। तदनन्तर श्रीमेरुतुंगसूरि अणहिलपुर पाटण पधारे । गच्छनायक पदके लिए सुमुहूर्त देखा गया, महिनों पहले उत्सव प्रारम्भ हो गये । तोरण, बंदरबाल मण्डित विशाल मण्डप तैयार हुआ, नाना प्रकारके नृत्य वाजिंत्रोंकी ध्वनिसे नगर गुंजायमान हो गया । ओसवाल रामदेव के भ्राता खीमागरने उत्सव किया। सं. १४४५ फाल्गुन वदि ११ के दिन श्री महेन्द्रप्रभसूरिजीने गच्छनायक पद देकर सारी गच्छधुरा श्रीमेस्तुंगसूरिको समर्पित की। संग्रामसिंहने पदठवणा करके वैभव सफल किया । श्रीरत्नशेखरसूरिकों आचार्य स्थापित किये । संघपति नरपालके सानिध्यसे समस्त महोत्सव निर्विघ्नतया सम्पन्न हुए।
सुरि महाराज नि मल तप संयम का आराधन करते हुए योगाभ्यासमें विशेष अभ्यस्त रहने लगे। हठयोग-प्राणायाम, राजयोग आदि क्रियाओं द्वारा नियमित ध्यान करते थे, ग्रीष्म ऋतुमें धपमें और शोतकालकी कडाके की ठंडीमें प्रतिदिन कायोत्सर्ग करके आत्माको अतिशय निर्मल करनेमें संलग्न थे । एक बार आप आबूगिरि के जिनालयोंके दर्शन कर उतरते थे, सन्ध्या हो गयो । मार्ग भूल कर विषम स्थानमें पगदण्डी न मिलने पर बिजलीकी तरह चमकते हुए देवने प्रकट हो कर मार्ग दिखाया । एक वार पाटणके पास सथवाडे सहित गुरुश्री विचरते थे, यवन सेनाने कष्ट देकर सब साथको अपने कब्जे कर लिया। सूरिजी
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