Book Title: Jain_Satyaprakash 1947 10
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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30] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ વર્ષ ૧૩ ७ सूरिजीका स्वर्गवास पट्टावलीमें जूनागढमें सं. १४७३ में हुआ लिखा है जब कि रासके अनुसार सं. १४७१ मार्गशीर्ष पूर्णिमा सोमवार को ही पाटणमें हो चुका था ।
८ रासमें बहुतसी ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं जो पट्टावली में नहीं पायी जाती अतएव यह रास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और अंचलगच्छ के इतिहासमें संशोधनकी सुन्दर सामग्री प्रस्तुत करनेके साथ साथ नृप प्रतिबाधादि अनेक नवीन सामग्री प्रकाशमें लाता है।
रासमें सूरिजीकी जिन कृतियोका उल्लेख है उनमेंसे धातुपारायण तथा अंगविधाउद्वार अद्यावधि अप्राप्त है, जिनका अंचलगच्छके ज्ञानभण्डारो में अन्वेषण होना चाहिए । सम्भव है कि और भी कतिपय ग्रन्थ उपलब्ध हों क्यों कि रासमें उल्लिखित ग्रन्थों के अतिरिक्त १ भावकर्मप्रक्रिया, २ शतकभाष्य, ३ नमुत्थुणं टीका, ४ सुश्राद्धकथा, ५ उपदेशमाला टीका, ६ जेसाजी प्रबन्ध ( ऐतिहासिक ) ग्रन्थ प्राप्त है ।।
अब पाठकों के अभिज्ञानार्थ उपर्युक्त रासका संक्षिप्त ऐतिहासिक सार दिया जाता है।
प्रथम गाथामें गणधर श्री गौतम स्वामीको नमस्कार करके चौथी गाथा तक प्रस्तावना में उद्देश, चरित्रनायककी महानता, कविकी लघुता आदि वर्णन कर पांचा गाथासे वीर प्रभुके पट्टधर सुधर्मस्वामी-जम्बू-प्रभवादिकी परम्परामें वज्रयामीको शाखाके प्रभावक विधिपक्षप्रकाशक श्री आर्यरक्षितसूरि-जयसिंहसूरि-धर्मधोषसूरि-महेन्द्रसूरि-सिंहप्रभ-अजितसिंहदेवेन्द्रसिंह-धर्मप्रभ-सिंहतिलक-महेन्द्रप्रभ तक अंचलगन्छके १० आचार्यों के नाम देकर ११ वें गच्छनायक श्री मेरुतुंगसूरि का चरित्र ८ वी गाथा से प्रारंभ किया है।
___ मरुमण्डलमें नाणी नामक नगरमें वुहरा वाचागर और उसके भ्राता विजयसिंह हुए, जिन्हेांने सिद्धान्तार्थ श्रवण कर विधिपक्षको स्वीकार किया । विजयसिंह के पुत्र वइरसिंह वहुरा प्राग्वाट वंशके अंगार, विचक्षण व्यवसायी, महान् दानी और धर्मिष्ट हुए । उनको नालदेवी नामक स्त्री शीलालङ्कारधारिगी थी। एक वार नालदेवीकी कुक्षिमें पुण्य सन् जीव देवलोकसे च्यवकर अवतीर्ण हुआ, जिसके प्रभावमें स्वप्नमें उसने सहस्रकिरणारी सूर्यको अपने मुखमें प्रवेश करते हुए देखा । चक्रेश्वरीदेवीने तत्काल आ कर इस महास्वप्नका फल बतलाया कि तुम्हारे मुक्तिमार्गप्रकाशक ज्ञानकिरणयुक्त सूर्यको तरह प्रतापो पुत्र उत्पन्न होगा, जो संयममार्ग ग्रहण कर युगप्रधान योगीश्वर होगा। चक्रेश्वरीके वचनों को आदर देती हुई धर्मध्यानमें सविशेष रक्त हो कर गर्भका पालन करने लगो । सं. १४०३ में पूरे दिनों से पांचों गृहों के उच्च स्थानमें आने पर नालदेवीने पुत्र जन्म दिया। होत्सवपूर्वक पुत्रका नाम ' वस्तिगकुमार ' रखा गया । क्रमशः बालक बडा हाने लगा और उसमें समस्त सद्गुण आ कर निवास करने लगे। एक बार श्रीमहेन्द्रप्रभसूरि नागानगरमें पधार । उनके उपदेशसे अतिमुक्तकुमारकी तरह विरक्त होकर माता पिता की आज्ञा ले संवत् १४१०में
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