Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 04
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१११ दोनों धर्म हैं । किन्तु किसी भी प्रामाणिक आगम में ऐसा पाठ नहीं है कि "दुविहे धम्मे पनत्ते तंजहा-संवरधम्मे चेव निजराधम्मे चेव " अतः श्रीमान् दूसरों के भ्रम देखने चले किन्तु अपने सामने के पहले भ्रम को भी देख न सके अथवा श्रीमान् भ्रमविध्वंसनकारजी की कृति में " प्रथमस्थाने मक्षिकापातः" यह कहा जाय तो कुछ भी अनुचित नहीं होगा। यदि कुछ देर के लिये इनकी मनमानी बालबोधता को मान भी लो जाय तो " भक्षितेऽपि लशुने न शान्तो व्याधिः " यही कहावत चरितार्थ होती है, क्योंकि संवर और सकाम निर्जरा ही श्रुत और चरित्र के अन्दर हैं अतः वे धर्म हो सकते हैं, किन्तु श्रीमान्जी संवर और निर्जरा को धर्म कहते हैं, केवल निर्जरा कहने से अकाम निर्जरा भी ग्रहण होती है और अकाम निर्जरा मिथ्यादृष्टियों में भी होती है अतः वह भी मोक्ष का आराधक होता है। किन्तु किसी भी शास्त्र सिद्धान्त में मिथ्यादृष्टि को मोक्षमार्ग का आराधक नहीं कहा है अतः भ्रमविध्वंसनकार का संवर निर्जरारूप धर्म का लक्षण अल्पज्ञतापूर्ण है और सर्वथा त्याग करने योग्य है। इतना ही नहीं इनके विशुद्ध हृदय के उद्गार को और भी गौर करके देखिये-आप साहब तो धर्म के लक्षण स्वयं शास्त्रविरुद्ध और सर्वज्ञवचनविरुद्ध कर रहे हैं इस पर भी तुर्रा यह कि इससे (संवर निर्जरा से) अतिरिक्त जो कोई धर्म ( वास्तविक धर्म) का लक्षण करता है वह आप की राय में अज्ञानी है, पाखण्डी है, धूर्त है-ऐसा विष भरा वचन आप के ही मुखारविन्दसे निकल सकता है। क्योंकि साधू को भी अज्ञानी पाखण्डी धूर्त आदि निकृष्ट वचनों से कहने का सौभाग्य भ्रमविध्वंसनकारके अतिरिक्त किसी भी साक्षर सभ्य समाज में किसी को नहीं प्राप्त हुआ और न हो सकता है। हां, तो श्रुत और चारित्र अथवा सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र धर्म है और वास्तव धर्मका लक्षण है, यही सवज्ञोक्त है सर्वसंमत है सर्वथा ग्राह्य है तथा अल्पज्ञोक्त संवर निर्जरा रूप धर्म का लक्षण व्यभिचरित होने से त्याग करने योग्य है यह सिद्ध हुआ। फिर भी बहुत आदमी सच्ची बात को भी नहीं मानते और अपनी दुराग्रहता को नहीं छोडते और सत्य पथ को ग्रहण नहीं करते, फिर भी वस्तुतत्व को भी जिज्ञासा रखते हैं निर्णय चाहते है । ऐसे महानुभावों के लिये प्रायः मेरा यह श्लोक अधिक उपयुक्त होगा कि काके कायॆमलौकिकं धवलिमा हंसे निसर्गस्थितो गांभीर्य महदन्तरं वचसि यो भेदः स किं कथ्यते । पतावस्सु विशेषणेष्वपि सखे ! यत्रेदमालोक्यते के काकाः सखि ! के च हंसशिशवो देशाय तस्मै नमः " ॥ (क्रमशः) For Private And Personal Use Only

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