Book Title: Jain_Satyaprakash 1944 04
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3५६ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ 1 વર્ષ ૯ चित्रित किये हुए चित्रपट्ट मिल रहे हैं, नमूनेकी तौर पर वजीराबाद में सं. १७१० ( सतारह सो दश ) के ज्येष्ठ मासमें धनराज्यऋषि के शिष्य विद्याऋषिका चितरा हुआ एक चित्रपट्ट ( कपडेका ) आठ फूट लंबा और तीन फूट दो इंच चौडा मिला है। इस पट्टमें मनुष्यकार चौदह राजलोक एवं उसके पर सिद्धशीला-मोक्षस्थान और अढाई द्वीप एवं उसके बाहर रहते हुए पशुओं के चित्र और सात नरकें एवं जिस जिस नरकमें परमाधामी जिस जिस प्रकार वेदना भोगवाते हैं और नरकके जीव भोगते हैं एवं जिन जिन कों के प्रभावसे, जिन जिन नरकोंमें जीव जाता है उन सबके हूबहू चित्र खिंचे हैं, मेरु पर्वत, भुवनपति, व्याणव्यंतर, ज्योतिष और वैमानिक इन चारों प्रकार के देवों और देवियों के चित्र तथा चरम शासनपति श्रमण भगवान श्री वर्धमानस्वामीजीको परमशांत मूर्ति और साधुओंका आलेखन किया हुआ है। यह पट्ट दो सो नवें (२९०) वर्षाका पुराणा हो जानेसे जीर्णशीर्ण हो गया है, और पट्टका रंग फिका पडजाने पर भी उसमें चितरे हुए चित्र फीके रंगमें भी आबाद हैं और देखनेवालों के दिलों को बहलादेते हैं। इस पट्ट के नीचे जो लेख लिखा है वह अक्षरशः यहां उद्धृत कर देता हूं जिससे आपको स्वतः पता लग जायेगा. " इति श्री अढाइदीप. अढाइदीप बहार पसु तिर्यंच सहति. सातनारकी प्रमा. धर्मी समेरु सहति. विमाणवासी देवदेवी सहति. श्रीवर्धमान तीर्थकर साध सहति. लोकाकार मोक्ष सहति. इति आर्थ समाप्त, अथ संवत १७९० वर्षे ज्येष्टदिने बजीराबाद नगरे धन्नराज्यऋषि तस्य सिसं लिखतं विधियाऋषि आत्मार्थे श्रीमद् वीरदेवनमसकार भवेत् . शुभं भवतु। . अब हमें देखना यह है कि सं. १७१० में वजीराबादमें जैन थे और वे भी मूर्तिपूजक । यदि मूर्तिपूजक न होते तो इस चित्रपट में श्रमण भगवान श्री वर्धमानस्वामीजी की मूर्ति और हाथमें मुंहपत्ती रखे हुए साधुओंकी मूर्तियें हरगीज न होती। इस चित्रपट्ट में भगवान की और मुंहपत्तो हाथमें रखे हुए साधुओं की मूर्तियोंका होना यही निर्विवाद सिद्ध कर रहा है कि पंजाब में पहेले मूर्तिपूजक जैन ही थे। तब ही तो सीयालकोट जैसे शहरमें भी श्री तीर्थकरदेव का मंदिर था। इसके सबूतके लिए सं. १७०९ के कार्तिक कृष्ण एकादशी रविवारके दिन हंसराजगणि के शिष्य ऋषि मुकेशवरचित सीयालकोटमंडन श्री पार्श्वनाथ भगवान का छंद-स्तवन-मिल आया है। इस छंद-स्तवन-की इक्कीस २१ गाथायें हैं. इन गाथाओं में प्रभु श्री पार्श्वनाथ जी के पांचों कल्याणकोंका वर्णन और भगवान के गगधर एवं साधु, साध्वी, श्रावक श्राविकाओं की संख्यादिका खूबीसे वर्णन किया है। अंतमें कलस इस प्रकार गाया है For Private And Personal Use Only

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