Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 26
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७८ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष ८ पहाड़ों में बडी बडी चट्टानों पर भी खुदे हैं। फीर भी सारनाथ कौशांबी ये ऐसी जगह है जहां इन स्तंभोंका तीसतीस फीट लंबा पत्थर बडी दूरसे और बहुत परिश्रम से लाया गया होगा । यदि स्तंभोका एकमात्र प्रयोजन अपनी धार्मिक आज्ञाएं खुदवाना यही होता तो उसके लिये ऐसे बीस-पचीस हात लंबे पत्थर के बदले दो-तीन हात लंबे-चौडे ऐसे एक ही पत्थर से काम बन सकता था । और एक विशेषता यह भी दिखाई देती है कि जहां साधुओंके ठहरनेके स्थान और पास में छोटा-मोटा शहर हो ऐसी ही जगहमें स्तंभ बने है; जंगल या पहाडोंमें ऐसे स्तंभ नहीं मिलते। इन सब प्रश्नोपपश्न से यह सूचित होता है कि इन स्तंभ का खास प्रयोजन कुछ और ही है । इस प्रकारके अखंड पत्थरके खंभे अन्य प्राचीन संस्कृतियोंके देशों में भी पाये जाते हैं । इजिप्त या मिश्र के प्राचीन मंदिरो के सामने इस तरहके विशाल पत्थरी खंभे (Monoliths ) रखे जाते थे । और उनकी छाया द्वारा वर्षकी ऋतु और दिनकी घडियां समझी जाती थीं । इसी तरहके स्तंभ रोम और ग्रीस में थे और उनका प्रयोजन भी यही था । भारत के वैष्णव पंथके मंदिरोंके सन्मुख भी प्रायः ऐसा ही स्तंभ बनाया जाता था । गोकुलमें जो सोनेका गरुडस्तंभ है उसमें और इन प्रियदर्शक बननाये हुए स्तंभों में बहुत कुछ साम्य है । शंकूकी छाया नाप कर उससे सूर्यकी दैनिक और वार्षिक गति-स्थितिका पता चलाना यह ज्योतिषकी प्राचीन प्रणालिका ' सूर्यप्रज्ञप्ति ' ग्रन्थ में स्पष्टता से बतलाई हुई है । 4 सूर्यप्रज्ञप्ति ' ग्रन्थ में 'पौरुषी - छाया - प्रमाण' नामका ९वां प्राभृत इसी विषय की चर्चा करता है । इस सब विवरणसे मेरा यह तर्क है की ये स्तंभ एक प्रकारके विशाल शंकू होने चाहिये। कोई जैनाचार्यके उपदेशसे जैन संघ और साधुओंकी सुभीताके लिये कालादर्शके कारण इन स्तंभोकी रचना और योजना हुई होगी । और प्रसिद्ध नगरोंके प्रमुख स्थानों पर उनकी स्थापना की गई प्रतीत होती है । छाया के नापने में किसी प्रकारकी बाधा न आने पा इसके कारण स्तंभ गोल ही नहीं किंतु किसी अन्य कारिगरी से बिलकुल अलिप्त रखे गये । और धर्माज्ञाएं भी इस तरह हलके हाथसे खुदवाई गई की स्तंभपृष्ठ पर कहीं भी ऊंची नीची जगह न बने । धर्माज्ञा खुदवाने में केवल ' एक पंथ दो काज ' यही तत्त्व होगा । कदाचित् प्रियदर्शने सब स्तंभ बनवाकर सुप्रसिद्ध स्थानों को भेंट दिये होंगे। किंतु उनका प्रयोजन ज्योतिषमूलक ही होना चाहिए ऐसा अनिवार्य तर्क है । यह विषय सर्व उपलब्ध स्तंभों के नाप और जाँच करनेके पश्चात् अधिक निर्णायक हो सकेगा । आशा है - इस दृष्टिसे प्रयत्न शूरू होवे । Vide (1) The Dawn of Astronomy ( 2 ) Astronomy of the Ancients. For Private And Personal Use Only

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