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(१८८] શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ
[१५३ दोनोंमें मतभेद है। सम्भव है कि श्वेताम्बर ग्रन्थों से दिगम्बरीय संस्करण करते समय परस्परका एक मिलान न होने के कारण ऐसी ऐसी गडबड हुइ है।
हरिवंश पुराण में भी राजीमती (पू ३। १३० से १३४) द्रौपदी (६३।७८), धनश्री, मित्रश्री, कुन्ती, सुभद्रा (६४।१३, १४४), अग्यारह अंगकी धारक सुलोचना + (१२२५२) वगैरह को दीक्षाका वर्णन हैं और आर्यिका की संख्या (१०५१ से ५८) भी लिखी गइ है।*
प्रायश्चित्त ग्रंथमें साधु और आयिका के लिये समान प्रायश्चित्त बताया है (इन्द्रनन्दी कृत छेद पिंड, गाथा २८९)।
भ० इन्द्रनन्दी कहते हैं कि-आयिका, ग्रहस्थ व अल्पबुद्धिवाले को सिद्धांत देना नहीं (नीतिसार, श्लो० ३२) ।
गणिनी और आर्याकी साध्वीपदके योग्य समाचारी है ( मूलाचार, प० ४ श्लो० १७७-१७८)।
भ० देवसेन लिखते हैं कि-आ० जिनसेन के गुरु भ्राता विनयसेनके शिष्य कुमारसेनने वि. सं. ७५३ में काष्टा संघ चलाया। इसने ही स्त्रीकी दीक्षा व छठे रात्रि-भोजन त्याग नामके गुणव्रतकी स्थापना की (दर्शनसार)।
दि. यापनीय संघ केवली-भुक्ति, और स्त्रीमुक्ति के पक्षमें है। श्रुतकेवली देशीय दि. आ. शाक्टायनने इन दोनों विषयकी सिद्धिके लिये स्वतंत्र शास्त्र बनाया है । यापनीय संघ दिगम्बर होने पर भी दिगम्बर समाजसे प्रश्न करता है कि____णो खलु इत्थी अजीवो, ण यावि अभव्वा, ण यावि दंसणविरोहिणी, णो अ-माणुसा, णो अणारिय-उप्पत्ती णो असंखेन्जाउया, णो अइकूरमइ, णो ण उवसंतमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोही, णो ववसायवजिया, णो अपुव्वकरणविरोहिणी, णो णवगुणठाणरहिया, णो अजोगालघीए, णो अकल्लाणभायणं ति । कहं ण उत्तम धम्मसाहिगत्ति ॥
-जैनदर्शन, व. ४, अं. ७, पृ. २९५ ।। महापुराणके रामायण की रचना भी दूसरेके अवतरणरूप ही है ऐसा देवबन्दवाले प्रसिद्ध दिगम्बर लेखक बाबू सूरजभानु वकील का विश्वास है। वे लिखते हैं कि
“पद्मपुराण और महापुराणमें कई बातों में बडाभारी मतभेद है" . “इन दोनों दिगम्बर जैन ग्रन्थों की प्रत्येक बातमें धरती आकाशका अंतर है कि-यह दोनों ही कथन किसी तरह भी सर्वज्ञभाषित नहीं है" + जयकुमारने १२ और सुलोचनाने ११ अंग पढे । हरि० स० १२ श्लो०५२॥
*और और दिगम्बर शास्त्रोंमें भी स्त्रीदीक्षाके और चारित्र में श्रीओंके समानाधिकार के काफी वर्णन हैं।
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