Book Title: Jain Sanskruti me Sangit ka Sthan Author(s): Nirupama Khandelwal Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ .....aamann a . .-...-AANEE LA nta r B AL -: -3 .... . . ........ .. . . ........ ... - - आचार्यप्रसाचाuaraUMAN श्रामानन्द अभिग पथप्रामानन्दसाग्रस १८२ इतिहास और संस्कृति 'संगीत समयसार' आचार्य पार्श्वदेव का दसवीं शती ईसवी का ग्रन्थ माना जाता है । इसमें संगीत का शास्त्रीय ढंग से संस्कृत की कारिकाओं में प्रामाणिक वर्णन मिलता है। इसमें संगीत की शुद्ध पद्धति का विवेचन हुआ है । यथा प्रबन्धा यत्र गीयन्ते, वाद्यन्ते च यथाक्षरम् । यथाक्षरं च नृत्यन्ते, सा चित्रा शुद्धपद्धतिः ॥ ७।२३० 'जहाँ प्रबन्धकाव्यों का गायन किया जाता हो, उनके अक्षरों के अनुसार ही वाद्य बजाये जाते हों और उन्हीं के अनसार नृत्य होता हो, वह चित्रपद्धति कही जाती है और वही पद्धति शुद्ध है।' संगीत में 'गीत' प्रमुख है, वाद्य और नृत्य सहायक हैं । वाद्य संगीत का और नृत्य वाद्य का अनुसरण करता है। तीनों मिलकर जिस लय को जन्म देते हैं वह 'श्रोत्रनेत्र महोत्सवाय' होती है। उसमें श्रोत्रनेत्र एक महोत्सव में डूब जाते हैं। आचार्य पार्श्वदेव ने संगीत की परिभाषा में गीत, वाद्य और नृत्य तीनों का समावेश किया है । 'संगीत रत्नाकार' में तो स्पष्ट लिखा है गीतं वाद्य तथा नत्यं त्रयं संगीतमुच्यते । वराहोपनिषद में भी संगीत में गीत, वाद्य तथा नत्य की अन्विति मानते हुए लिखा है संगीतताललयवाद्यवशं गतापि मौलिस्थकुम्भपरिरक्षणधीनटीव । महाकवि कालिदास ने भी 'मेघदूत' नामक गीतिकाव्य में गीत, वाद्य तथा नृत्य तीनों को संगीतार्थ के उपादानों के रूप में प्रस्तुत किया है। नाद संगीत का माध्यम नाद है। संगीत समयसार के अनुसार नाद से सम्पूर्ण वाङमय-वागविस्तार की उत्पत्ति होती है। कण्ठ आदि भेद से जो नाद स्फुट रूप से स्फुरित होता है, उसी को तद्विज्ञ (नाद-पण्डित) आरोही क्रम से 'ध्वनि' कहते हैं--- कण्ठादिस्थान भेदेन यो नादः स्फुरति स्फुटम् । आरोहिक्रमतस्तज्ज्ञः स एव ध्वनिरुच्यते ।। संगीत भक्तिरस का सहायक है । 'सागारधर्मामृत' में जिन-भक्ति में संगीत को श्रेष्ठ साधन बताया गया है एकवास्तु जिनेभक्तिः किमन्यैः स्वेष्टसाधनैः । या दोग्धि कामनुच्छिद्य सद्योऽपाया नशेषतः ॥ संगीत और भक्ति का घनिष्ठ सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है। संगीत के योग से भक्तिभाव में तीव्रता आती है, लालित्य की वृद्धि होती है और हृदय द्रवित होकर तदाकार वृत्ति में स्थित हो जाता है। आत्मा में शान्ति का स्रोत उत्पन्न करने में संगीत अत्यन्त महत्वपूर्ण है। संगीत हृदय का उच्छवास है । मानव की भव्य भावनाओं की सहज, सरल एवं मधुर अभिव्यक्ति है। संगीत जीवन की वह कमनीय कला है, जिसके अभाव में जीवन नीरस है। महरि ने संगीतकला से अनभिज्ञ मनुष्य को पशु की संज्ञा प्रदान की है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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