Book Title: Jain Sahitya me Shrikrishna Charit
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 14
________________ (xii) वस्त्र पहना करते थे। उनके मुकुट में उत्तम धवल, शुक्ल, निर्मल कौस्तुभ मणि लगी रहती थी। उनके कान में कुण्डल, वक्षस्थल पर एकावली हार लटकता रहता था। उनके श्रीवत्स का लांछन था। वे सुगन्धित पुष्पों की माला धारण किया करते थे। __ वे अपने हाथ में धनुष धारण करते थे, वे दुर्धर धनुर्धर थे। उनके धनुष की टंकार बड़ी ही उद्घोषणकर होती थी। वे शख, चक्र, गदा, शक्ति और नन्दक धारण करते थे । ऊंची गरूड़ ध्वजा के धारक थे। वे शत्रुओं के मद को मर्दन करने वाले, युद्ध में कीर्ति प्राप्त करने वाले अजित और अजितरथ थे । एतदर्थ वे महारथा भी कहलाते थे। श्रीकृष्ण के अद्वितीय बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व का दिग्दर्शन ज्ञातासूत्र के १६वें अध्ययन में होता है। यह विवरण उनके अमरकंका गमन के सन्दर्भ में है, जहां वे द्रौपदी के उद्धार के लिए जाते हैं। उनके अमरकंका जाने का प्रसंग जैन इतिहास में एक आश्चर्य के रूप में माना जाता है। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व बहु आयामी था। वे एक समाज सुधारक थे, तो एक राजनीतिज्ञ/कटनीतिज्ञ भी थे । वे कर्मयोगी थे, तो एक कुशल सेनापति और सारथी भी थे । वे शान्ति के अग्रदूत थे, तो युद्ध में पीछे हटने वाले भी नहीं थे । वे गोपालक थे, कुशल निर्माता थे, संगीतज्ञ (बांसुरी वादक) थे और एक श्रेष्ठ उपदेशक दार्शनिक भी थे । समाज सुधारक के रूप में उन्होंने उन दिनों प्रचलित अन्धविश्वास और थोथी रूढ़ियों का विरोध कर नवीन मान्यताओं की स्थापना की थी। युद्ध को टालने और समस्या का शान्तिमय समाधान करने के लिए उन्होंने अन्तिम समय तक प्रयास किया था, किन्तु जब युद्ध करना पड़ा तो वे अर्जुन के सारथी के रूप में प्रस्तुत हुए। युद्ध के मैदान में जब अर्जुन ने अपने सम्मुख अपने ही बन्धु-बांधवों को देखा तो वह युद्ध विमुख हो गया। इस अवसर पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो सारगभित उपदेश दिया वह एक अनुपम ग्रन्थ 'गीता' के रूप में आज सर्वत्र उपलब्ध है। श्रीकृष्ण ने इस ग्रन्थ में आत्मा की अजर-अमरता और निष्काम कर्म का प्रतिपादन करते हुए अर्जुन की प्रत्येक शंका का समाधान कर उसे युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए तैयार किया था। गीता में आत्मा तथा कर्म विषयक जो सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं, वे करीब-करीब जैन मान्यताओं के सदश ही हैं। आत्मा की अजर-अमरता जैन दर्शन भी स्वीकार करता है और कर्मों के अनुसार फल प्राप्ति की बात को भी। परन्तु अवतारवाद जैन दर्शन को मान्य नहीं है, जैसा कि गीता में बताया गया है कि 'जबजब धर्म की हानि होगी मैं जन्म लूगा ।' 'मैं' का तात्पर्य यहां श्रीकृष्ण रूपी भगवान से है। जैसा कि सर्व विदित है श्रीकृष्ण को वैदिक परम्परा में भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। यहां इतना अवश्य कहा जा सकता है कि महाभारत की पूरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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