Book Title: Jain Sahitya me Sankhya tatha Sankalnadisuchak Sanket
Author(s): Mukutbiharilal Agarwal
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 2
________________ गणितज्ञोंने भी संख्याकी परिभाषा की है। लीलावतोके लेखक सुप्रसिद्ध भास्कराचार्यने संख्याको गणनाका आधार कहा है। न्यायशास्त्रियोंने भी संख्याको एक गुण विशेषके रूपमें लिखा है तथा उसकी गणना चौबीस गुणोंके अन्तर्गत की है। प्रशस्तपादभाष्यके अनुसार संख्या एकत्व आदि व्यवहारका कारण स्वरूप एक विशिष्ट गुण है । तर्कसंग्रहकारने भी व्यक्त किया है । जैनाचार्योंने भी संख्याकी परिभाषा की है। उनके मतानसार संख्या वही है जिसके द्वारा वस्तुओंके परिमाणका ज्ञान हो। अभिधानराजेन्द्रमें संख्याकी परिभाषा इस प्रकार है : जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का संख्यात्मक ज्ञान होता है. वह संख्या है। आचार्य अकलंकदेवने भी इसी प्रकार लिखा है जिसका सद्भाव प्रसिद्ध है, उसी पदार्थकी गणना संख्यात, असंख्यात तथा अनन्तके रूपसे की जाती है। अतः सत्के बाद परिमाण निश्चित करनेवाली संख्याको ग्रहण किया गया है । एककी गिनती संख्या नहीं है जैन साहित्यमें एककी गिनतीको संख्या नहीं मानते । इस विषयमें अनुयोगद्वारसूत्रके १४६वें सूत्रमें निम्न कथनोपकथन दृष्टिगोचर होता है : प्रश्न-गणना संख्या क्या है ? उत्तर-एक गणना संख्या नहीं है । गणना संख्या दोसे प्रारम्भ होती है। ऐसा क्यों है, इसका उत्तर अभिधानराजेन्द्रमें इस प्रकार दिया गया है : एककी गिनती संख्या नहीं है क्योंकि एक घटको देखकर यहाँ घाट है, इसकी प्रतीति होती है। उसकी संख्याका ज्ञान नहीं होता । अथवा दानसमर्पणादि व्यवहार कालमें लोग एक चीजकी गिनती नहीं करते । कारण चाहे सम्यक व्यवहारका प्रभाव हो अथवा इस प्रकार गिननेसे अल्पत्वका बोध हो, पर एकको संख्या नहीं मानते । अतएव संख्याका आरम्भ दोसे होता है । धवलाकार वीरसेन एवं आचार्य नेमिचन्द्र चकवर्तीके निम्न वचन है : गणना अर्थात् गिनती एकसे प्रारम्भ होती है पर संख्याका आरम्भ दोसे होता है। तीन और उससे बड़ी संख्याको कृति कहा गया है। त्रिलोकसारके टीकाकार माधवचन्द्र विद्यका भी यही मत है। इनका कथन है कि जिस संख्याके वर्गमेंसे मूल घटाकर शेषको वर्ग करनेपर यदि पहले वर्गसे बड़ी संख्या प्राप्त हो, उसे कृति कहते हैं । एक और दोमें कृतिका यह लक्षण घटित न होनेसे एक और दो कृति नहीं है। तीन आदि संख्याओंमें उक्त लक्षण घटित होनेके कारणसे संख्यायें कृति कहलाती हैं। कृतिकी उपरोक्त परिभाषा जैनगणितकी विशेषता है। यह जैनेत्तर ग्रन्थोंमें नहीं मिलती। जैन साहित्यमें विशाल संख्याएँ __ स्थानांगसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वारसूत्र, जीवसमास आदिमें कालमानके सन्दर्भमें नि नलिखित इकाइयोंका कथन किया गया है। पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, उपट्टांग, अट्ट, अवयांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अक्षिनिकुरांग, अक्षिनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चलिकांग, चूलिका, शीषप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका। १. राजेन्द्र अभिधान, भाग १, पृ० ६३ । २. तत्त्वार्थवातिक, सम्पादक प्रो० महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९५३-१-८, ३ । ३. “से कि गणणासंखा ? एक्को गणणं न उबेइ, दुप्पमिह संख्या" अनुयोगद्वारसूत्र, सूत्र १४६ । ४. राजेन्द्रअभिधान, भाग ७, पृ० ६७ । -- ४०३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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