Book Title: Jain Sahitya me Sankhya tatha Sankalnadisuchak Sanket Author(s): Mukutbiharilal Agarwal Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 6
________________ - इसका आशय ३४३४३४३४३४३४३x१० से है। तिलोयपण्णत्ति में गुणाके लिये एक खड़ी लकीरका प्रयोग किया गया है। यथा, इसमें १०००x ९६४५००४८४८४८४८४८४८४८४८ के लिये इसप्रकार लिखा है : ५०१९६५.०८1८1८1८1८1८1८1८1८ यहाँपर ५० का आशय १००० है। अर्थ संदृष्टि में भी गुणाके लिये यही चिह्न मिलता है। यथा यहाँ १६ को २ से गुणा करनेके लिये १६०२ लिखा है । त्रिलोकसारमें भी गुणाके लिये यही संकेत मिलता है, यथा १२८ को ६४ से गुणा करनेके लिये १२८।६४ लिखा है । भागके लिये संकेत भागके लिये वक्षाली गणितमें 'भा' संकेतका प्रयोग मिलता है। यह संकेत 'भा' शब्द 'भाग' अथवा 'भाजित' का प्रथम अक्षर है । यथा, ४० भा १६० । १३ इसका आशय १६० x १३ - १ से है। ४० भिन्नोंको प्रदर्शित करनेके लिये प्राचीन जैन साहित्यमें अंश और हरके बीच रेखाका प्रयोग नहीं को इस ग्रन्थमें इसप्रकार मिलता है। तिलोयपण्णत्तिमें बेलनका आयतन मालूम किया है जो लिखा है : त्रिलोकसारमें भी इसीप्रकारके उदाहरण मिलते है। इसमें लिखा है कि इक्यासीसौ वाणवेंके चौसठवाँ भागको इसप्रकार लिखिये : इसमें भाग देकर शेष बचनेपर उसको लिखनेकी विधिका भी उल्लेख किया है जो आधुनिक विधिसे १. तिलोयपण्णत्ति, भाग १, गाथा १, १२३, १२४ । २. अर्थसंदृष्टि, पृ०६। ३. त्रिलोकसार, परि०, पृ० ३ । ४. तिलोयपण्णत्ति भाग १, गाथा १,११८ । ५. त्रिलोकसार, परि०, पृ० ५ । -४०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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