Book Title: Jain Sahitya me Ram Bhavna
Author(s): Shashirani Agarwal
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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________________ जैन-साहित्य में राम-भावना डॉ० शशिरानी अग्रवाल भारत में जैन और बौद्ध दर्शन वेद को प्रमाण न मानने वाले दर्शनों में सबसे प्राचीन तथा विशिष्ट हैं। "बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन-धर्म अधिक, बहुत अधिक प्राचीन है, बल्कि यह उतना ही पुराना है जितना वैदिक धर्म ।" राम-कथा केवल हिन्दू धर्म में ही प्रचलित नहीं, बल्कि बौद्ध और जैन साहित्य में भी बहुत लोकप्रिय रही। वाल्मीकीय रामायण की रचना के उपरान्त राम को केन्द्र बनाकर संस्कृत में विपुल धार्मिक और ललित साहित्य रचा जाने लगा। उसकी लोकप्रियता से बौद्ध और जैन धर्मावलम्बी भी इस ओर आकृष्ट हुए। हिन्दू धर्म की प्रतिद्वन्द्विता में अपने धर्म का प्रचार और प्रसार करने के लिए उन्होंने पौराणिक चरित-काव्यों की रचना आरम्भ की, जिनमें उन्होंने नूतन धार्मिक चरितों और आख्यानों की उद्भावना की और साथ ही हिन्दू धर्म में प्रतिष्ठित राम और कृष्ण को अपनाया। हिन्दू धर्म की अपेक्षा अपने धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने के लिए उन्होंने इन चरितनायकों को जैनमतावलम्बी के रूप में प्रस्तुत किया। इन कवियों का उद्देश्य जैन धर्म के प्रति समाज में श्रद्धा उत्पन्न करना तथा विविध देवताओं को ऋषभदेव की शक्ति के रूप में मानना था। उनकी यह नीति बृहत् धार्मिक योजना का एक अंग थी। जैन साहित्य में राम-कथा की दो धाराएँ मिलती हैं-एक विमल सूरि की और दूसरी आचार्य गुणभद्र की। पहली परम्परा का अनुकरण रविषेण और स्वयंभू ने किया है। कन्नड़ में भी विमल सूरि की कथावस्तु को आधार बनाकर रामकथा का निरूपण किया गया। यह वाल्मीकि की रामकथा के बहुत निकट है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विमल सूरि की राम-कथा ही प्रचलित है, लेकिन दिगम्बर सम्प्रदाय में विमल सूरि की परम्परा को अधिक महत्ता देते हुए भी गुणभद्र की परम्परा भी मान्य है । गुणभद्राचार्य की परम्परा में पुष्पदन्त ने 'पद्मपुराण' की रचना की। विमल सूरि की परम्परा में जैन रामकाव्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और कन्नड़ भाषा में प्रणीत हुए हैं। विमलसूरि की धारा पउमचरिय के रचना-काल (प्रथम शताब्दी-पश्चात्) से लेकर लगभग बीसवीं शताब्दी के अन्त तक प्रवहमान रही और गुणभद्र की परम्परा हवीं शताब्दी ई० से प्रारम्भ होकर १३वीं शताब्दी ई० तक गतिशील रही। जैन साहित्य की राम-कथा अपने विस्तार की विशेषता के साथ-साथ अन्य अनेक विशेषताओं को संजोये हुए है। जैन मान्यता के अनुसार निरन्तर गतिशील कालचक्र की प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में त्रिषष्टि शलाका-पुरुषों का जन्म हुआ करता है। जैन-पुराण में चरित-वर्णन के लिए ये त्रिषष्टि शलाकापुरुष ही मान्य हैं । ये विषष्टि शलाकामहापुरुष ऋषभदेव से लेकर महावीर तक चौबीस तीर्थकर, भरत से ब्रह्मदेव तक बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेवों के रूप में प्रत्येक कल्प में होते हैं। पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण इनके आगामी जन्म की परिस्थितियां, क्रिया-कलाप, शारीरिक लक्षण और रूप-रंग भी निश्चित रहते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी के ६३ शलाकापुरुषों का जन्म हो चुका है । अब अगली उत्सर्पिणी के आने तक कोई शलाकापुरुष नहीं उत्पन्न होगा। इस मान्यता के अनुसार राम, मुनिसुव्रत तीर्थ १. दिनकर, रामधारीसिंह : संस्कृति के चार अध्याय, पृ० १२६ २. प्रो० मुगलि : कन्नड़ साहित्य, पृ० १२७ ३. (विशेष विवरण के लिए देखिए राजस्थानी भाषा में राम-कथा-मैश० गुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ०८४०-८४१) श्री अगरचन्द नाहटा ने श्वेताम्बर विद्वानो द्वारा रचित १४ और दिगम्बर विद्वानों द्वारा प्रणीत रचनाओं का उल्लेख किया है। ४. हिरण्मय : कन्नड़-साहित्य में राम-कथा-परम्परा,(मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ), पृ० ७५१ ५. आचार्यश्री तुलसी : ‘अग्नि-परीक्षा' सं० २०१७ में लिखित इसी परम्परा की जैन रामायण है। ६. उपरिवत्, १०७८ ७. उपाध्याय, डा. संकटाप्रसाद : महाकवि स्वयंभ, पृ.४ जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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