Book Title: Jain Sahitya me Kshetra Ganit
Author(s): Mukutbiharilal Agarwal
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 18
________________ जैन साहित्य में क्षेत्रगणित ४३६ आधार का क्षेत्रफल = (परिधि) (7 का मान 3 रखने पर) अतः आयतनःX आधार का क्षेत्रफल X ऊँचाई =1XI(परिधि)'xऊँचाई (परिधि (6) Xऊँचाई निष्कर्ष-'क्षेत्रगणित' का भारतीय गणित में ही नहीं अपितु विश्व गणित में अपना विशिष्ट महत्व है। क्षेत्र गणित के अन्तर्गत त्रिभुज, वर्ग, चतुर्भुज, दीर्घवृत्त, परवलय आदि गणित अध्ययन के ऐसे तत्व हैं जिनके द्वारा गणित का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट होना सम्भव है। क्षेत्र गणित के इन तत्वों के उद्गम और विकास में जैनाचार्यों का वह महत्तम योगदान है जिसको कभी विस्मरण नहीं किया जा सकता । कतिपय क्षेत्रगणित के तत्वों के उद्गम एवं विकास पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वृत्त क्षेत्र के सम्बन्ध में प्राचीन गणित पर जितना भी कार्य हआ है वह जैनाचार्यों की ही देन है। आजकल की खोज में वृत्त की जिन गूढ़ गुत्थियों को कठिनाई से गणितज्ञ समझा पा रहे हैं, उन्हीं को जैनाचार्यों ने अपनी महती प्रज्ञामयी कुशलता से सरलता पूर्वक समझाया है। दीर्घवृत्त का अध्ययन करने वाले महावीराचार्य जी, जो हिन्दू गणित में तो अपना कोई सानी नहीं रखते, साथ ही साथ विश्व गणित में भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। महावीराचार्य ने वृत्तीय चतुर्भुजों के उन समस्त सूत्रों का उल्लेख किया है जो ब्रह्मगुप्त ने दिये हैं परन्तु आपकी शैली अत्यधिक सुस्पष्ट है। यवाकार, मुरजाकार, पणवाकार, वज्राकार आदि विभिन्न क्षेत्रों का वर्णन और उनके क्षेत्रफलों का प्रतिपादन जैनाचार्यों के विशेष योगदान से ही सम्भव हो सका है। क्षेत्रगणित के अन्तर्गत ग की महिमा अपना चौमुखी महत्व रखती है। 7 का मान 355/113, जो नवीं शताब्दी के गणितज्ञ धवलाकार वीरसैनाचार्य की विशेष देन है, वह आज भी आधुनिकतम खोज द्वारा प्राप्त ग के मान से पूर्णतः मेल खाती है। अन्ततः कहा जा सकता है कि क्षेत्रगणित के व्यापकत्व में जैनाचार्यों का चिरस्मरणीय योगदान है। इन्हीं जैनाचार्यों ने क्षेत्र गणित जैसे नीरस विषय को सरलता, सुबोधता तथा स्वाभाविकता की त्रिगुणात्मकता की चिरगरिमा से मण्डित किया है। संदर्भ १. सूत्रकृतांग भाग २, अध्याय १, सूत्र १५४ १३. वही, भाग ३, अध्याय २, पृ० २५८ २. सूर्यप्रज्ञप्ति, सूत्र ११, २५, १०० १४. तिलोयपण्णत्ति ४, ५५-५६ ३. Indische studien, Vol X, p. 274 १५. वही, ४, ६ ४. भगवतीसूत्र (१५, ३ सूत्र ७२४-७२६) १६. वही, ४, १८२ ५. 'अनुयोगद्वार सूत्र' सूत्र, १२३-१४४ १७. तिलोयपण्णति का गणित, पृ० ५४ ६. गणितसारसंग्रह, अध्याय ७, गाथा ११ १८. तिलोयपण्णत्ति ४, १८० ७. वही, अध्याय ७, गाथा ३२, ३७, एवं ४२ १६. वही, ४, १७६३ ८. 'अनुयोगद्वारसूत्र', सूत्र १००, १३२, १३३ २०. जम्बूद्वीवपण्णत्ति, १, २३; ४,३३-३४ ९. 'तत्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य' भाग ३, २१. वही, २, २६, ६ अध्याय २, पृ० २५८ २२. वही, २, ३० १०. वही, भाग ३, अध्याय २, पृ० २५८ २३. वही, २, २३, ६, ६ ११. वही, भाग ३, अध्याय २, पृ० २५८ २४. वही, २, २४-२८, ६, १० १२. वही, भाग ४, अध्याय १४, पृ० २८८ २५. वही, २, २६ भाया प्रकार आभापार्यप्रवर अभी श्रीआनन्द श्रीआनन्दप्रसन्न wwwive Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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