Book Title: Jain Sahitya evam Sanskruti ke Vikas me Bhattarako ka Yogadan Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 4
________________ भट्टारक ज्ञानभूषण के समान भ. विजयकीर्ति का थे । भट्टारक रत्नकोति, कुमुदचन्द्र, सोमकोति, जय भी अपने समय में बहुत ही प्रभाव था । इनके काल सागर, भट्टारक महीचन्द्र आदि पचासों भट्टारकों ने में कितने ही मन्दिरों का निर्माण हुआ तथा संवत् साहित्य निर्माण में अत्यधिक रुचि ली थी । जव 1557,60, 61, 64 68, 70 में जो प्रतिष्ठा साहित्य का निर्माण, शास्त्र भण्डारों की स्थापना, महोत्सव हुए, उनके सम्पादन में इनका विशेष योग नवीन पाण्डुलिपियों का लेखन एवं उनका संग्रह आदि रहा । भट्टारक विजयकीति राजस्थान एवं गुजरात सभी इनके अद्वितीय कार्य थे। आज भी जितना अधिक के कितने ही शासकों द्वारा सम्मानित थे। एक गीत में संग्रह भट्टारकों के केन्द्रों पर मिलता है उतना अन्यत्र भ. विजय कीति की निम्न प्रकार प्रशंसा की गई :-- नहीं। अजमेर, नागौर एवं आमेर जैसे नगरों में स्थित शास्त्र भण्डार इस तथ्य के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । ये अनेक राजा चरण सेखि मालवी मेवाड भट्टारक ज्ञान की ज्वलंत मृत्ति थे। प्राकृत एवं अपगूजर सोरठ सिन्धु सहिजी अनेक भड भूपाल । भ्रश के स्थान पर इन्होंने संस्कृत और हिन्दी में अन्य दक्षण मरहठ चीण कुकण पूरवि नाम प्रसिद्ध । रचना को अधिक प्रोत्साहन दिया और स्वयं भी इन्हीं छत्रीस लक्षण कला बहुतरि अनेक विद्यावारिधि । भाषाओं में साहित्य निर्माण करते रहे । वे साहित्य की किसी एक विधा से भी नहीं चिपके रहे किन्तु साहित्य के भ. विजयकीर्ति के पश्चात् और भी अनेक सभी अंगों को पल्लवित किया। उन्होंने चरित काव्यों के भट्टारक हुए जिनमें भ. शुभ चन्द्र, भ. रत्नकीति, म. कुमुदचन्द्र, भ. चन्द्रकीर्ति, भ. देवेन्द्रकीर्ति (प्रथम) साथ साथ पुराण, काव्य, वेलि, रास, पंचासिका, शतक, भ. देवेन्द्रकीर्ति (द्वितीय) आदि कितने ही भट्टारक हुए पच्चीसी वाबनी, विवाह लो, आख्यान, पद व गीतों की रचना में गहरी रुचि ली और संस्कृत व हिन्दी में जिन्होंने देश व समाज के सांस्कृतिक विकास में जबरदस्त सैकड़ों रचनाओं का निर्माण करके एक नया कीर्तिमान योग दिया । संवत् 1664 में तीन विशाल शिखरों से युक्त आदिनाथ के मन्दिर के निर्माण और उसकी भव्य स्थापित किया । प्रतिष्ठा समारोह में म. देवेन्द्रकीति (द्वितीय) का नाय) का भट्टारक सकल कीति (15वीं शताब्दी) ने अपने प्रमुख योगदान था । इस समारोह में भव्य और जीवन के अन्तिम 22 वर्षों में 26 से भी अधिक विशाल आकार की मूत्तियाँ प्रतिष्ठित की गयीं जो संस्कत एवं 8 राजस्थानी रचनाएँ लिखीं। वे मंगीत, आज भी देश के विभिन्न मन्दिरों में विराजमान हैं।' तथा छन्द शास्त्र में निपुण थे तथा अपनी कृतियों को वास्तव में इन 500 वर्षों में (संवत् 1350 से 1850 जन-जन में प्रचार की दृष्टि से सरल एवं आकर्षक तक) इन भट्टारकों का जैन संस्कृति के विकास में शैली में लिखते थे। सकल कीर्ति की प्रमख रचनाओं योगदान रहा। के नाम इस प्रकार हैंसाहित्यक क्षेत्र के विकास में भटटारकों का योग- संस्कृत कृतियाँ : दान सर्वाधिक उल्लेखनीय है । भट्टारक सकल कीर्ति आदि पुराण, उत्तर पुराण, नेमिजिन चरित्र, एवं उनकी परम्परा के अधिकांश विद्वान , साहित्य सेवी शान्ति नाथ चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्र, वर्द्धमान चरित्र, 3. मूर्ति लेख संग्रह प्रथम भाग--पृष्ठ सं. 176। २३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6