Book Title: Jain Sahitya evam Sanskruti ke Vikas me Bhattarako ka Yogadan
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं सस्कृति के विकास में भट्टारकों का योगदान डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल भगवान महावीर के पश्चात् होनेवाले अधिकांश रहा तब देश में एकता के स्थान पर अनेकता ने सिर आचार्यों ने साहित्य निर्माण में विशेष रुचि ली और उठाया । चारों ओर अशान्ति का वातावरण छाने उसके प्रचार-प्रसार के लिए अथक परिश्रम किया। लगा। 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही भारत पर प्राकृत भाषा के साथ-साथ उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश एवं मुसलमानों के आक्रमण होने लगे और 13वीं शताब्दी प्रादेशिक भाषाओं को भी प्रश्रय दिया और जन-साधा- के आते-आते वहाँ मुसलमानों का हमेशा के लिये शासन रण की रुचि के अनुसार विविध विषयों में विशाल स्थापित हो गया। देश में आतंक का साम्राज्य छा साहित्य का सर्जन किया । ऐसे आचार्यों में आचार्य गया। मुसलमानों के भयपूर्ण शासन में अहिंसकों का कुन्दकुन्द (प्रथम शताब्दी), उमा स्वामी (तृतीय शताब्दी) जीना दूभर हो गया। नग्न साधुओं का विहार और समन्तभद्र (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी), सिद्वसेन (पंचम भी कठिन हो गया । मन्दिरों को लूटना, मूर्तियों को शताब्दी), देवनन्दि, पात्रकेसरी, अकलंक (सातवीं तोड़ना एवं स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों को मौत के घाट शताब्दी), वीर सेन (आठवीं शताब्दी) विद्यानन्दि उतारना साधारण-सी बात हो गयी। ऐसे समय में माणिक्य नन्दि, जिनसेन, गुणभद्र, नेमिचन्द्र सिद्धान्त बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में नन्दि चक्रवती, अमृत चन्द्र, देवसेन, पदमनन्दि आदि के नाम संघ के भट्टारक प्रभाचन्द्र ने दिल्ली में अपना केन्द्र उल्लेखनीय हैं। ये सभी आचार्य अपने-अपने समय के स्थापित किया और इस प्रकार सारे उत्तर भारत में अत्यधिक ओजस्वी एवं सशक्त विद्वान थे। भट्टारक परम्परा को नव स्वरूप प्रदान किया। लेकिन जब देश की राजनैतिक एकता समाप्त भट्टारक प्रभा चन्द्र (संवत् 1314 से 1408) होने लगी और सम्राट हर्षवर्धन के बाद जब कोई भी के पश्चात् सारे देश में भट्टारकों ने शनैःशन; लोकशासक देश को एकता के सूत्र में बांधने में असमर्थ प्रियता प्राप्त की और एक-के-पश्चात् एक दूसरे प्रान्तों २३१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भटटारक गादियाँ स्थापित होने लगीं । राजस्थान गांव-गाँव में मन्दिरों का निर्माण हआ जिसमें संस्कृति में चित्तौड़, चम्पावती, तक्षकगढ़, आमेर, सांगानेर, ही पुनर्जीवित नहीं हई अपित मूर्तिकला, स्थापत्यकला जयपूर, श्री महावीर जी, अजमेर, नागौर, जौवनेर, आदि कलाओं को भी प्रोत्साहन प्राप्त हआ। 1664 मध्यप्रदेश में ग्वालियर एव सोनागिरि जी, बागड़प्रदेश में में मोजमाबाद (राजस्थान) में तीन शिखरोंवाले डंगरपुर, सागवाड़ा, बासवाड़ा एवं रिषभदेव, गुजरात में मन्दिर के जीर्णोद्वार के पश्चात् जो विशाल प्रतिष्ठा हुई नवसारी, सूरत, खम्भात, धोधा, गिरनगर, महाराष्ट्र में थी उसे तो बादशाह अकबर एवं आमेर के महाराज कारंजा एवं नागपुर, दक्षिण में मूडविद्री, हुम्मच एवं श्रवण मानसिंह का भी आशीर्वाद प्राप्त था । करोड़ों रुपया बेलगोला आदि स्थानों में भट्टारकों की गादियाँ पानी की तरह बहाया गया : इसी तरह 1826 में सवाई स्थापित हो गयीं। इन भट्टारकों ने अपने-अपने गण माधोपुर के भट्टारक सुरेन्द्र कीति के तत्वाधान व प्रेरणा संघ व गच्छ स्थापित कर लिए। अपने प्रभाव से क्षेत्र से जो अभूतपूर्व प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हआ संभवतः बाँट लिए और अपनी-अपनी सीमाओं में धर्म के एक- वह अपने ढंग का पहला महोत्सव था। राजस्थान में मात्र स्तम्भ बन गये । 16वीं शताब्दी में देहली गादी के आज कोई ऐसा मन्दिर नहीं है जिसमें 1826 में भट्टारकों ने अपने ही अधीन मंडलाचार्य पद बनाये जो प्रतिष्ठापित मूर्ति न हो। जयपुर, सागवाड़ा, चांदखेड़ी, भट्टारकों की ओर से प्रतिष्ठा, पूजा एवं समारोह झालरापाटन में जो विशाल एवं कलापर्ण मत्तियों हैं आदि का नेतृत्व करने लगे। उन सबकी प्रतिष्ठा में इन भट्टारकों का प्रमुख हाथ था। इन भटारकों ने जैन साहित्य और संस्कृति के विकास में अपना महत्वपूर्ण योग दिया । 1350 से . जब इन भट्टारकों की कीति अपनी चरम सीमा - 1850 तक भट्टारक ही आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि पर पहुंचने लगी तो इनकी निशेधिकाएं व कीर्तिस्तम्भ रूप में जनता द्वारा पूजे जाते रहे तथा जैन संस्कृति बनने लगे । आवां (राजस्थान) में पहाड़ पर भट्टारक - के प्रधान स्तम्भ रहे। इन 500 वर्षों में जितने भी प्रभाचन्द्र, जिनचन्द्र और शुभचन्द्र की इसी तरह की प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हए उनमें इनकी प्रेरणा तीन निषेधिकाएं हैं जो भट्टारकों में तत्कालीन जनता एवं आशीर्वाद ने जबरदस्त कार्य किया। संवत् 1548, की श्रद्धा एवं भावना को व्यक्त करनेवाली हैं । इसी 1664 1783, एवं 1826 में देश में विशाल प्रतिष्ठा तरह चित्तौड़ किले में प्रतिष्ठापित कीर्तिस्तम्भ चाकस में समारोह आयोजित हए, इन सब में भट्टारकों का बोल बनवाया गया जिसमें भटटारकों की मत्तियों के अतिबाला रहा। हजारों मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित होकर देश के रिक्त उनके होने का भी समय दिया हआ है। इसी विभिन्न मन्दिरों में विराजमान की गई । उत्तर भारत के तरह का कीर्तिस्तम्भ आमेर के बाहर की बस्ती में अधिकांश जैन मन्दिरों में आज इन संवतों में प्रतिष्ठापित स्थापित किया हआ है। ये सब कीर्तिस्तम्भ भटटारकों मत्तियाँ प्राप्त होती हैं । आज सारा बागड़प्रदेश 'मालवा' के उत्कर्ष के तो प्रमाण हैं ही किन्तु उनके द्वारा सम्पाकोटाबंदी एवं झालावाड़ का प्रदेश, चम्पावती, टोड़ा- दित सांस्कृतिक सेवाओं को भी घोषित करनेवाले हैं। राम सिंह एवं रणथम्भौर का क्षेत्र जितना जैन पूरातत्व से समद्ध है उतना देश का अन्य क्षेत्र नहीं । संवत जयपुर के काला छावड़ा के मन्दिर में पार्श्वनाथ 1548 में भटटारक जिनचन्द्र ने मुडासा नगर में की एक धातु की मूत्ति है जिसकी प्रतिष्ठा संवत 1413 जारों मत्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर सारे देश में जैन में वैशाख सुदी 6 के दिन हुई थी। इसमें भटटारक संस्कृति के प्रचार-प्रसार में विशेष योग दिया। देश के प्रभाचन्द्र का उल्लेख हुआ है। इसी तरह आवां तथा २३२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बयाना में संवत 1400 तथा 1404 की मूत्तियाँ हैं इन्होंने संवत 1502 में बैशाख सुदी 3 के दिन पावजिसमें भट्टारक प्रभाचन्द्र एवं उनके शिष्य पद्मनन्दि नाथ प्रतिमा की स्थापना करवायी थी । इसके अगले दोनों का उल्लेख किया गया है। भट्टारक पद्मनन्दि वर्ष संवत् 1503 में प्रतिष्ठापित चौबीसी की एक (संवत् 1385 से 1450) को गुजरात में प्रतिष्ठा प्रतिमा जयपुर के एक मन्दिर में विराजमान की। महोत्सव के संचालन के लिए ही भट्टारक पद पर संवत 1504 में नगर (राजस्थान) में आयोजित स्थापित किया गया। कविवर वख्तराम शाह ने अपने प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लिया था । इन्हीं भट्टारक बुद्धि विलास में निम्न प्रकार व्यक्त किया है जिनचन्द्र के शिष्य भट्टारक प्रभाचन्द्र द्वितीय ने कितने ही मन्दिरों के निर्माण एवं प्रतिष्ठा महोत्सवों को सवत् तेरह सौ पिचिहतस्यौ जानि वै अपना आशीर्वाद दिया था। मंडलाचार्य धर्मचन्द जो भये भट्टारक प्रभाचन्द्र गुनखानि वै । भट्टारक प्रभाचन्द्र के प्रमुख शिष्य थे, ने, आवां तिनको आचारिज इक हो गुजरात में, (राजस्थान) में संवत 1583 में जिस विशाल प्रतिष्ठा तहाँ सवै पंचनि मिलि ठानी बात में ।। समारोह का नेतृत्व किया था वह इतिहास में अपना की इक प्रतिष्ठा तो सुभ काज हवं विशेष स्थान रखती है । धर्मचन्द्र ने भट्टारक जिनचन्द्र करन लगे विधिवत सब ताकी साज वै का निम्न शब्दों में स्मरण किया हैभट्टारक बुलवाये तो पहुंचे नहीं, तवं सबै पंचनि मिलि यह ठानी सही । तत्पहस्थ-श्रुताधारी प्रभाचन्द्र त्रिया निधिः। सूरि मंच वाहि आचारिज को दियो। दीक्षितो पो लसत्कीतिः प्रचण्ड पण्डिता गणी ॥ पद्मनन्दि भट्टारक नाम सु यह कियौ ॥ सोमकीति अपने समय के लोकप्रिय भट्टारक थे। भट्टारक पद्मनन्दि द्वारा प्रतिष्ठित सैंकड़ों मूत्तियाँ संवत 1527, 1532, 1536, एवं 1540 में इनके राजस्थान में मिलती हैं । सांगानेर के संघीजी के द्वारा प्रतिष्ठित कितनी ही मूर्तियां राजस्थान के विभिन्न मन्दिर में इन्हीं के द्वारा प्रतिष्ठापित शान्तिनाथ मन्दिरों में उपलब्ध होती हैं । अपने समय के मुसलस्वामी की मूत्ति है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् 1464 में मान शासकों से इनका अच्छा सम्बन्ध था। 16वीं हई थी। इसी संवत की प्रतिष्ठित मूर्ति पार्श्वनाथ शताब्दी में भट्टारक ज्ञानभूषण भट्टारक सकलकीति दिगम्बर जैन मन्दिर में टोंक में विराजमान है । भट्टा- परम्परा में अत्याधिक प्रभावशाली भट्टारक हुए रक सकल कीति ने अपने जीवन में 14 बिम्ब प्रति- जिन्होंने प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार, नवीन मन्दिर ष्ठाओं का संचालन किया था । इनके द्वारा संवत् निर्माण, पंच कल्याणक प्रतिष्ठाएँ सांस्कृतिक समारोह, 1490, 1492 एवं 1497 में प्रतिष्ठापित मूत्तियाँ उत्सव एवं मेलों आदि के आयोजनों को प्रोत्साहित उदयपुर, डूगरपुर एवं सागवाड़ा के जैन मन्दिरों में किया । इनके द्वारा संवत् 1531, 1534, 1535, मिलती हैं। संवत 1548 में जीवराज पापड़ीवाल ने 1540, 1543, 1544, 1545, 1552, 1557 व जो विशाल प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न कराया था उस 1560 तथा 1561, में प्रतिष्ठापित सैंकड़ों मूर्तियाँ महोत्सव के प्रधान थे भट्टारक जिनचन्द्र । सर्वप्रथम बागड़ प्रदेश के नगरों में उपलब्ध होती हैं। 1. मूर्ति लेख संग्रह भाग 1 पृष्ठ 68 एवं भाग 2 पृष्ठ सं. 305 (महाबीर भवन जयपुर द्वारा संग्रहित)। 2. वीर शासन के प्रभावक आचार्य--पृष्ठ सं. 135 २३३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक ज्ञानभूषण के समान भ. विजयकीर्ति का थे । भट्टारक रत्नकोति, कुमुदचन्द्र, सोमकोति, जय भी अपने समय में बहुत ही प्रभाव था । इनके काल सागर, भट्टारक महीचन्द्र आदि पचासों भट्टारकों ने में कितने ही मन्दिरों का निर्माण हुआ तथा संवत् साहित्य निर्माण में अत्यधिक रुचि ली थी । जव 1557,60, 61, 64 68, 70 में जो प्रतिष्ठा साहित्य का निर्माण, शास्त्र भण्डारों की स्थापना, महोत्सव हुए, उनके सम्पादन में इनका विशेष योग नवीन पाण्डुलिपियों का लेखन एवं उनका संग्रह आदि रहा । भट्टारक विजयकीति राजस्थान एवं गुजरात सभी इनके अद्वितीय कार्य थे। आज भी जितना अधिक के कितने ही शासकों द्वारा सम्मानित थे। एक गीत में संग्रह भट्टारकों के केन्द्रों पर मिलता है उतना अन्यत्र भ. विजय कीति की निम्न प्रकार प्रशंसा की गई :-- नहीं। अजमेर, नागौर एवं आमेर जैसे नगरों में स्थित शास्त्र भण्डार इस तथ्य के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । ये अनेक राजा चरण सेखि मालवी मेवाड भट्टारक ज्ञान की ज्वलंत मृत्ति थे। प्राकृत एवं अपगूजर सोरठ सिन्धु सहिजी अनेक भड भूपाल । भ्रश के स्थान पर इन्होंने संस्कृत और हिन्दी में अन्य दक्षण मरहठ चीण कुकण पूरवि नाम प्रसिद्ध । रचना को अधिक प्रोत्साहन दिया और स्वयं भी इन्हीं छत्रीस लक्षण कला बहुतरि अनेक विद्यावारिधि । भाषाओं में साहित्य निर्माण करते रहे । वे साहित्य की किसी एक विधा से भी नहीं चिपके रहे किन्तु साहित्य के भ. विजयकीर्ति के पश्चात् और भी अनेक सभी अंगों को पल्लवित किया। उन्होंने चरित काव्यों के भट्टारक हुए जिनमें भ. शुभ चन्द्र, भ. रत्नकीति, म. कुमुदचन्द्र, भ. चन्द्रकीर्ति, भ. देवेन्द्रकीर्ति (प्रथम) साथ साथ पुराण, काव्य, वेलि, रास, पंचासिका, शतक, भ. देवेन्द्रकीर्ति (द्वितीय) आदि कितने ही भट्टारक हुए पच्चीसी वाबनी, विवाह लो, आख्यान, पद व गीतों की रचना में गहरी रुचि ली और संस्कृत व हिन्दी में जिन्होंने देश व समाज के सांस्कृतिक विकास में जबरदस्त सैकड़ों रचनाओं का निर्माण करके एक नया कीर्तिमान योग दिया । संवत् 1664 में तीन विशाल शिखरों से युक्त आदिनाथ के मन्दिर के निर्माण और उसकी भव्य स्थापित किया । प्रतिष्ठा समारोह में म. देवेन्द्रकीति (द्वितीय) का नाय) का भट्टारक सकल कीति (15वीं शताब्दी) ने अपने प्रमुख योगदान था । इस समारोह में भव्य और जीवन के अन्तिम 22 वर्षों में 26 से भी अधिक विशाल आकार की मूत्तियाँ प्रतिष्ठित की गयीं जो संस्कत एवं 8 राजस्थानी रचनाएँ लिखीं। वे मंगीत, आज भी देश के विभिन्न मन्दिरों में विराजमान हैं।' तथा छन्द शास्त्र में निपुण थे तथा अपनी कृतियों को वास्तव में इन 500 वर्षों में (संवत् 1350 से 1850 जन-जन में प्रचार की दृष्टि से सरल एवं आकर्षक तक) इन भट्टारकों का जैन संस्कृति के विकास में शैली में लिखते थे। सकल कीर्ति की प्रमख रचनाओं योगदान रहा। के नाम इस प्रकार हैंसाहित्यक क्षेत्र के विकास में भटटारकों का योग- संस्कृत कृतियाँ : दान सर्वाधिक उल्लेखनीय है । भट्टारक सकल कीर्ति आदि पुराण, उत्तर पुराण, नेमिजिन चरित्र, एवं उनकी परम्परा के अधिकांश विद्वान , साहित्य सेवी शान्ति नाथ चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्र, वर्द्धमान चरित्र, 3. मूर्ति लेख संग्रह प्रथम भाग--पृष्ठ सं. 176। २३४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिनाथ चरित्र. सद्भाषितावलि, जम्बू स्वामी चरित्र, श्रीपाल चरित्र, तत्वार्थसार दीपक सुकुमाल चरित्र । राजस्थानी कृतियाँ आराधना प्रतिबोधसार, नेमिश्वर गीत, मुक्तावलि गीत णमोकारक गीत, सोलहकारण रास, सारसीखा मणिरास तथा शान्तिनाथ फागु " आचार्य सोमकीर्ति (संवत् 1516-40 ) ने भी संस्कृत व हिन्दी को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया । इनकी सातव्यसन कथा, प्रद्य ुम्न चरित्र एवं यशोधर चरित्र संस्कृत में निबद्ध रचनाएँ हैं तथा गुर्वा - वलि, यशोधर रास, ऋषभनाथ की धूलि, त्रेपनक्रियागीत, आदिनाथ एवं मल्लगीत इनकी राजस्थानी कृतियाँ हैं। सभी कृतियाँ भाषा एवं शैली की दृष्टि से उत्तम रचनाएं हैं । कवि ने इन रचनाओं में जनसाधारण की भावनाओं को अच्छी तरह प्रदर्शित किया है तथा उसकी दृष्टि में वही नगर एवं ग्राम श्र ेष्ठ माने जाने चाहिए जिनमें जीववध नहीं होता । सत्याचरण किया जाता हो तथा नारी समाज का जहाँ अत्याधिक सम्मान हो । यही नहीं यहाँ के लोग अपने परिग्रह संचय की प्रतिदिन सीमा भी निर्धारित करते हों तथा जहाँ रात्रि को भोजन करना भी वर्जित हो । भ. सकल कीर्ति के शिष्य एवं लघु भ्राता बहन जिनदास संस्कृत एवं हिन्दी के प्रकाशमान नक्षत्र हैं। उन्होंने हिन्दी की सबसे अधिक सेवा की और उसमें 60 से भी अधिक कृतियाँ निबद्ध करके इस दिशा में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। उनकी रामसीतारास ( संवत 1520) राजस्थानी की प्रथम रामायण है जो छन्द संख्या की दृष्टि से रामायण से भी बड़ी है । बहन जिनदास 15वीं शताब्दी के विद्वान थे तथा मीरा व सूरदास के पूर्व ही उन्होंने हिन्दी के प्रचारप्रसार में महत्वपूर्ण योग दिया तथा जन साधारण की भाषा में सबसे अधिक रचनाएँ लिखीं । बहन जिनदास की हिन्दी की प्रमुख रचनाएँ निम्न प्रकार हैं राम सीतारास, यशोधररास नागकुमाररास, परमहंसरास, आदि पुराणरास, हरिवंश पुराण, श्रविक रास, जम्बू स्वामीरास भद्रबाहु चाऊदन्त सबन्धरास धन्य कुमाररास, भविष्य दन्तरास, जीवन्धर रास. करकण्डुरास, पुष्पांजलिरास, सुभौम चक्रवर्तीरास, धनपालरास, सुदर्शनरास ज्ञानभूषण भट्टारक भुवनकीर्ति के शिष्य थे । भट्टारक बनने से पूर्व ही वे साहित्य निर्माण में लग गये थे और मट्टारक पद छोड़ने के पश्चात भी वे इसी दिशा में लगे रहे । आदीश्वर फाग उनकी सर्वश्रेष्ठ व परिष्कृत रचना है । इसमें 501 फाग हैं जिनमें 262 हिन्दी के तथा शेष 239 पद्य संस्कृत में निवद्ध हैं। आदीश्वर फाग के अतिरिक्त इनकी अन्य रचनाओं में पोषह रास, जलगावन रास तथा घटकर्म रास के नाम उल्लेखनीय हैं । 4. मो पूज्यो नृप मल्लि भैरव महादेवेन्द्र मुख्ये । षट्तकीगम शास्त्र कोविद मति जात मशश्चन्द्रमा || भव्याम्भोसह भास्करः शुभ करः संसार विच्छेदकः । सोऽव्याची विजयादि कीर्ति मुनियो मदारकाधीशवरः । 17वीं शताब्दी में होनेवाले भट्टारकों में भट्टारक रत्नकीर्ति एवं भट्टारक कुमुदचन्द्र का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। ये गुरु व शिष्य दोनों ही बड़े लोकप्रिय सन्त थे तथा जन-जन में भगवद् भक्ति को उभारने के लिये छोटे-छोटे भक्तिपरक पदों की रचना किया करते थे। नेमि राजुल को लेकर भी दोनों ही 3 २३५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवियों ने अनेक पदों की रचना की / रत्नकीर्ति के नीच नहीं है। कर्मों के कारण ही उसे ऊँच व नीच की पदों की संख्या 38 है तथा कुमुदचन्द्र के भी इतने संज्ञा दी जाती है तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नामों ही पद होंगे / रत्नकीति का एक पद देखिये--- से सम्बोधित किया जाता है। आत्मा तो राजा है वह शूद्र कैसे हो सकती है। सखी री नेमि न जानी पीर / बहोत दिवाजे आये मेरे घरि, संग लेई हलधर वीर। ऊँच नीच नवि अध हुयि, कर्म कलंक तणो कीतु सोई / तामे पसूय पुकार सुनी करि, गयो गिरिवर के तीर / चन्दवदनी पोकारती डारती, मण्डन हार उर चीर। इनके पश्चात् एक के बाद एक भट्टारक होते रत्नकीरती प्रभु भये वैरागी, राजुल चित्त कियो धीर। गये / अजमेर, नागोर, आमेर, जयपूर, डूंगरपुर, गालिया कोट, कारंजा, उदयपुर आदि स्थानों में कुमुदचन्द्र के पदों में अध्यात्म, विरह और भक्ति उनकी गादियाँ स्थापित हुई तथा वहीं से वे बिहार तीनों का सामंजस्य है। 'मैं तो नर भव वारि गया यों' करके जन-जन में साहित्य के प्रति रुचि पैदा किया पद यदि अध्यात्मपरक है तो 'सखी री अब तो रहयो करते, अपने शिष्यों को साहित्य निर्माण की ओर प्रोत्सानहिं जात, विरहपरक पद हैं / इन दोनों सन्तों ने हित किया करते रहते / व्र. जिनदास, ब्रह्मराय मल्ल, हिन्दी साहित्य में जो पद साहित्य लिखने की परम्परा बख्तराम शाह, लक्ष्मीराम चांदवाड़ा जैसे विद्वान् इन्हीं डाली वह भविष्य में होनेवाले कवियों के लिये वरदान भट्टारकों के शिष्य थे जिन्होंने साहित्यिक विकास की सिद्ध हुई। ओर विशेष ध्यान दिया और देश के साहित्यिक पक्ष को मजबूत किया। इन भट्टारकों ने संस्कृत भाषा 16वीं 17वीं शताब्दी में एक और प्रभावशाली को अपना कर देश में उसे उच्च स्थान दिया तथा अपने भट्टारक हुए जिनका नाम भ. शुभचन्द्र है। भ. शुभ काव्यों के माध्यम से उसे जन-सामान्य में लोक-प्रिय चन्द्र शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ थे। उन्हें षटभाषा कवि बनाया गया। एक ओर संस्कृत तथा दूसरी ओर हिन्दी चक्रवर्ती कहा जाता था / इन्होंने जो साहित्य सेवा अपने राजस्थानी दोनों ही भाषाओं को अपनाकर इन्होंने जीवन में की वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने साहित्य क्षेत्र में उदार वातावरण को स्थान दिया। योग्य है। इन्होंने संस्कृत में 40 रचनाएँ तथा हिन्दी वास्तव में 500 वर्षों तक इन भट्टारकों ने देश में 7 रचनाओं को निबद्ध करके भारतीय साहित्य की का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से जो विकास अभूतपूर्व सेवा की। इनकी सभी हिन्दी कृतियाँ लघु किया वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है / हैं किन्तु भाव व शैली की दृष्टि से उत्तम हैं "तत्व लेकिन अभी तक इनकी सेवाओं का जितना मूल्यांकन ही सार दहा, इनकी सुन्दर कृति है / इसमें दोहे व होना चाहिए था उतना नहीं हो सका है और उसकी चौपाई हैं / रचना छोटी होने पर भी अत्यधिक महत्व व महती आवश्यकता है। पूर्ण हैं / एक स्थान पर आत्मा का वर्णन करते हुए कवि ने कहा कि किसी की भी आत्मा उच्च अथवा 236