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जैन साहित्य एवं सस्कृति के विकास में भट्टारकों का योगदान
डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
भगवान महावीर के पश्चात् होनेवाले अधिकांश रहा तब देश में एकता के स्थान पर अनेकता ने सिर आचार्यों ने साहित्य निर्माण में विशेष रुचि ली और उठाया । चारों ओर अशान्ति का वातावरण छाने उसके प्रचार-प्रसार के लिए अथक परिश्रम किया। लगा। 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही भारत पर प्राकृत भाषा के साथ-साथ उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश एवं मुसलमानों के आक्रमण होने लगे और 13वीं शताब्दी प्रादेशिक भाषाओं को भी प्रश्रय दिया और जन-साधा- के आते-आते वहाँ मुसलमानों का हमेशा के लिये शासन रण की रुचि के अनुसार विविध विषयों में विशाल स्थापित हो गया। देश में आतंक का साम्राज्य छा साहित्य का सर्जन किया । ऐसे आचार्यों में आचार्य गया। मुसलमानों के भयपूर्ण शासन में अहिंसकों का कुन्दकुन्द (प्रथम शताब्दी), उमा स्वामी (तृतीय शताब्दी) जीना दूभर हो गया। नग्न साधुओं का विहार और समन्तभद्र (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी), सिद्वसेन (पंचम भी कठिन हो गया । मन्दिरों को लूटना, मूर्तियों को शताब्दी), देवनन्दि, पात्रकेसरी, अकलंक (सातवीं तोड़ना एवं स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों को मौत के घाट शताब्दी), वीर सेन (आठवीं शताब्दी) विद्यानन्दि उतारना साधारण-सी बात हो गयी। ऐसे समय में माणिक्य नन्दि, जिनसेन, गुणभद्र, नेमिचन्द्र सिद्धान्त बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में नन्दि चक्रवती, अमृत चन्द्र, देवसेन, पदमनन्दि आदि के नाम संघ के भट्टारक प्रभाचन्द्र ने दिल्ली में अपना केन्द्र उल्लेखनीय हैं। ये सभी आचार्य अपने-अपने समय के स्थापित किया और इस प्रकार सारे उत्तर भारत में अत्यधिक ओजस्वी एवं सशक्त विद्वान थे।
भट्टारक परम्परा को नव स्वरूप प्रदान किया।
लेकिन जब देश की राजनैतिक एकता समाप्त भट्टारक प्रभा चन्द्र (संवत् 1314 से 1408) होने लगी और सम्राट हर्षवर्धन के बाद जब कोई भी के पश्चात् सारे देश में भट्टारकों ने शनैःशन; लोकशासक देश को एकता के सूत्र में बांधने में असमर्थ प्रियता प्राप्त की और एक-के-पश्चात् एक दूसरे प्रान्तों
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