Book Title: Jain Sahitya Samvardhan me Rashtra Kutyug ka Yogdan
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 2
________________ पश्चिमी चालुक्य (५वीं-८वों शती ई०) साम्राज्यकी अद्वितीय देन पूज्यपाद भट्टाकलङ्कदेव (ल० ६४०७२० ई० ) थे। इस बीच दक्षिण देशमें अन्य भी कई छोटे-बड़े जैन साहित्यकार हए। ७२०-२५ ई० के लगभग राष्ट्रकूटोंकी लट्ट लूर शाखाके इन्द्र द्वितीयके पुत्र दन्तिदुर्ग खण्डावलोक वैरमेबने जो एक चालक्य राजकुमारीसे उत्पन्न था, एलडर (एलोरा) प्रदेशमें अपने पैर जमाये, ७३३ में स्वयं को स्वतन्त्र राजा घोषित किया, ७४२ ई० में एलडरको विधिवत राजधानी बना लिया और ७५२ ई० में चालक्य नरेश कीर्तिवर्मनको पूर्णतया पराजित करके वह महाराजाधिराज बन गया। उसके उत्तराधिकारी कृष्ण प्रथम शुभतुंग (७५७-७३ ई०) ने राज्यकी सीमाओं और शक्तिका और अधिक विस्तार किया। उसने गंगनरेश श्रीपुरुष मुत्तरस 'शत्रुभयंकर' के गुरु विमलचन्द्राचार्यके प्रशिष्य महान् तार्किक परवादिमल्लको अपनी राजसभामें मम्मानित किया था। एलोराके विश्वप्रसिद्ध कलापूर्ण शैव एवं जैन गुहामन्दिरोंका उत्खनन भी इसी नरेशके समयमें प्रारम्भ हुआ। उसका ज्येष्ठ पुत्र गोविन्द द्वि० (७७३७९ ई०) अयोग्य था किन्तु कनिष्ठ पुत्र ध्रुव धारावर्ष निरुपम वल्लभराय धवलश्य (७७९-९३ ई०) बड़ा पराक्रमी, विजेता एवं विद्वानोंका प्रश्रयदाता था। वस्तुतः राष्ट्रकूटोंने अपने पूर्ववर्ती, कदम्बों और चालुक्यों की ही सर्वधर्मसमभावी उदार नीतिका अनुसरण किया, फलस्वरूप उनके प्रश्रयमें अनेक जैनाचार्योंने भारती के भण्डारको अमूल्य ग्रन्थरत्नोंसे अलंकृत किया। पञ्चस्तुपान्वयी चन्द्रसेनाचार्यके प्रशिष्य और आर्यनन्दिगरुके शिष्य, लक्षाधिक श्लोक परिमाण शास्त्रके रचयिता, सर्वमहान आगमिक टीकाकार स्वामी वीरसेन (७५०-७९० ई०) ने अपनी जन्मभूमि चित्रकूटपुर (चित्तौड़) से विद्यागुरु एलाचार्यके सान्निध्यमें सिद्धान्तोंका गहन अध्ययन करनेके उपरान्त, राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्गके शासन कालमें ही उसके राज्यके केन्द्रसे नातिदूर, नासिक देशके वाटग्रामपुरमें अपना केन्द्र स्थापित कर लिया था, जहाँ वह निद्वन्द्व होकर साहित्य-साधनामें जुट गये। इस ज्ञानपीठमें उन्होंने एक विशाल ग्रन्थागार बना लिया, अनेक विद्वान शिष्योंका समदाय प्राप्त कर लिया और विश्वविद्यालयका रूप दे दिया जो लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक फलता-फूलता रहा । स्वामी वीरसेनके शिष्योंमें प्रमुख थे-दशरथगुरु, विनयसेन, पदमसेन, कुमारसेन, देवसेन और जिनसेन स्वामी और समकालीन दक्षिणात्य जैन साहित्यकारों एवं प्रभावक आचार्योंमें विमलचन्द्र, प्रभाचन्द्र, बहनन्दवीर्य, परवादिमल्ल, अनन्तकीर्ति, बुद्धकुमारसेन, स्वामी विद्यानन्द, जिनसेन सूरि (पुन्नाटसंघी), अपभ्रंश महाकवि स्वयंभू आदि प्रसिद्ध है। ध्र व धारावर्षके प्रतापी पुत्र एव उत्तराधिकारी गोविन्द तृतीय जगत्तुंग प्रभूतवर्ष (७९३-८१४ ई०) के समयमें साम्राज्यके विस्तार वैभव एवं शक्तिमें और अधिक वद्धि हई तथा राजधानीके रूपमे मनोरम मान्यखेट महानगरीका निर्माण हुआ। उसके समयमें स्वामि वीरसेनके पट्टशिष्य स्वामि जिनसेन व उनके सधर्याओंने तथा श्रीपाल मुनि, एलकाचार्य, वर्द्धमानगुरु, विजयकीति, अर्ककीर्ति, कवि त्रिभुवन स्वयम्भू (स्वयम्भूके पुत्र) आदि सन्तोंने साहित्य-साधना ओर धर्मप्रभावना की। गोविन्द तृतीयका पुत्र एवं उत्तराधिकारी नृपतुंग-शर्ववर्म-श्रीवल्लभ-महाराजशण्ड-अतिशय-धवलवीरनारायण-वल्लभराज आदि विरुदधारी सम्नाट अमोघवर्ष प्रथम (८१५-८७६ ई०) तत्कालीन भारतवर्षके १. वही, पृ० १७१-१८० । २. राष्ट्रकूट इतिहास के लिए देखें-एस० एस० आल्तेकर कृत राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स तथा ज्योतिप्रसाद जैन कृत भारतीय इतिहास, एकदृष्टि, द्वितीय सं०, पृ० २९२-३१० ।। -२७४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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