Book Title: Jain Sahitya Samvardhan me Rashtra Kutyug ka Yogdan
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 1
________________ जैन साहित्य सम्बर्द्धनमें राष्ट्रकूटयुगका योगदान डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ देश कालकी राजनीतिक परिस्थिति पर तत्तद् सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रगति एक बहुत बड़ी सीमा तक निर्भर करती है। यदि किसी पर्याप्त विस्तृत भूखण्ड पर किसी एक शक्तिशाली राज्यसत्ताका सुव्यवस्थित शासन लगभग एक सौ वर्ष पर्यन्त भी निरन्तर चलता रहता है, तो उसकी जनता सुख, शान्ति और समृद्धिका प्रभूत उपभोग करती है । ऐसी स्थिति में धार्मिक भावनाओं, सांस्कृतिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक एवं कला सृजनको भी विशेष प्रेरणा मिलती है । यदि शासनवर्ग नीतिपरायण, प्रबुद्ध, विद्यारसिक और कलाप्रेमी भी हुआ, तो सोनेमें सुगन्धकी उक्ति चरितार्थ होती है । सामान्यतया जन साधारण भी राजन्यवर्ग तथा नेताओंका ही अनुसरण करते हैं । अब यदि शासकवर्ग किसी एक धर्म, परम्परा या सम्प्रदायका ही विशेष अथवा एकान्त पक्षपाती हुआ, तब उसी परम्परासे सम्बन्धित साहित्यिक एवं कलाका विशेष उत्कर्ष होता है । किन्तु वह उदार, सहिष्णु एवं सर्वधर्म समभावी हुआ, तो राज्य में प्रचलित प्रायः सभी सांस्कृतिक परम्परायें अपनी-अपनी प्राणवत्ता एवं क्षमताओं के अनुरूप फलती-फूलती हैं ओर विभिन्न परम्पराओंके अनुयायियों में परस्पर आदान-प्रदान, सहयोग और सद्भाव भी बना रहता है । विवक्षित राष्ट्र के सर्वतोमुखी उत्कर्ष की यह सुखद भूमिका होती हैं । यही कारण है कि गुप्तकाल ब्राह्मण संस्कृत साहित्य एवं कलाका स्वर्णयुग कहलाया, बंगाल-विहारके पालयुगने बौद्ध संस्कृतिका उत्कर्ष देखा, गुजरात के सोलंकियों (चौलुक्यों ) के शासनकालमें श्वेताम्बर परम्परा के जैन साहित्यका सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक भाग रचा गया, विद्याप्रेमी परमारोंके मालवा में विपुल जैन तथा ब्राह्मणीय साहित्यका सृजन हुआ ओर दक्षिणापथके राष्ष्ट्रकूटयुगमें दिगम्बर-परम्परा के विविध विषयक जैन साहित्य के सर्वश्रेष्ठ बहुसंख्यक ग्रन्थोंका प्रणयन हुआ । आगे, मव्यकालमें भी विजयनगर और मुगल साम्राज्यों के स्वर्णयुग उनकी कला ओर साहित्य के भी स्वर्णयुग रहे हैं । विश्व के प्रायः देशके इतिहास में यही तथ्य दृष्टिगोचर होता है । यह एक सुखद संयोग रहा कि दक्षिणापथके जिस भूभागको केन्द्र बनाकर आठवीं शती ई० में राष्ट्रकूटोंका अभ्युदय हुआ, वहीं दुसरीसे पांचवीं शतो पर्यन्त वनवासी (वैजयन्ती) के कटुम्ब नरेशोंकी सत्ता बनी रही और उसके प्रारम्भकालमें ही कदम्बनरेश शिवकोटिके परमगुरु स्वामिसमन्तभद्र ( ल० १२०१८५ ई०)' जैसे दिग्गज दार्शनिक साहित्यकार एवं महात् प्रभावक दिगम्बराचार्य हुए थे । यों, उसके पूर्व भी, प्रथम शताब्दी ई० में ही भगवान् कुन्दकुन्द पुष्पदन्त, भूतबलि प्रभृति कई शीर्षस्थानीय आचार्यपुंगव अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व द्वारा सम्पूर्ण दक्षिण भारतको भली-भाँति अनुप्राणित कर चुके थे। कदम्बके समतामयिक उदयमें आने वाले गंगवाहिके शक्तिशाली जिनधर्मी गंगरायकी सर्वोत्तम देन गंगनरेश दुर्विनीत के गुरु आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ( ४६४-५२४ ई० ) थे । इसी प्रकार उक्त कदम्बोंके उत्तराधिकारी, वातापीके १. ज्योतिप्रसाद जैन, जैनसोर्सेज आफ दि हिस्ट्री आफ एन्शन्ट इण्डिया, पृ० १४३ - १४९ । २. वही, पृ० १०७ - १२८ । ३. वही, पृ० १५३-१६२५ Jain Education International - २७३ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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