Book Title: Jain Sadhna me Sadguru ka Mahattva Author(s): Pushpalata Jain Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 2
________________ 100 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 गुणग्रहतां गुण पाइयइ, गुणि रंजई गुणजाण, कमलि भ्रमर आवइ चतुर, दादुर ग्रह इन अजाण । गुणिजन संगत थई निपुण, पावई उत्तम ठाम, कुसुमसंग डोरो कंटक केतकि सिरि अभिराम। पहिलउ धर्म ने संग्रहिउ, मात कहिइ गुरुवयण, नटुइवयणे जागीयइ, विकसे अंतरनयण। सोमप्रभाचार्य के भावों का अनुकरण कर बनारसीदास ने भी गुरु सेवा को ‘पायपंथ परिहरहिं धरहिं शुभपंथ पग' तथा 'सदा अवांछित चित्त जुतारन तरन जग' माना है। सद्गुरु की कृपा से मिथ्यात्व का विनाश होता है। सुगति-दुर्गति के विधायक कर्मों के विधि-निषेध का ज्ञान होता है, पुण्य-पाप का अर्थ समझ में आता है, संसार-सागर को पार करने के लिए सद्गुरु वस्तुतः एक जहाज है। उसकी समानता संसार में और कोई भी नहीं कर सकता - मिथ्यात्व दलन सिद्धान्त साधक, मुकतिमारग जानिये। करनी अकरनी सुगति दुर्गति, पुण्य पाप बखानिये। संसारसागर तरन तारन, गुरु जहाज विशेखिये। जगमांहि गुरुसम कह 'बनारसि', और कोउ न पेखिये। कवि का गुरु अनन्तगुणी, निराबाधी, रूपाधि, अविनाशी, चिदानंदमय और ब्रह्मसमाधिमय है। उनका ज्ञान दिन में सूर्य का प्रकाश और रात्रि में चन्द्र का प्रकाश है। इसलिए हे प्राणी, चेतो और गुरु की अमृत रूप तथा निश्चय-व्यवहारनय रूप वाणी को सुनो। मर्मी व्यक्ति ही मर्म को जान पाता है। गुरु की वाणी को ही उन्होंने जिनागम कहा और उसकी ही शुभधर्मप्रकाशक, पापविनाश, कुनयभेदक, तृष्णानाशक आदि रूप से स्तुति की। जिस प्रकार से अंजन रूप औषधि के लगाने से तिमिर रोग नष्ट हो जाते हैं वैसे ही सद्गुरु के उपदेश से संशयादि दोष विनष्ट हो जाते हैं।' शिव पच्चीसी में गुरु वाणी को 'जलहरी' कहा है। उसे सुमति और शारदा कहकर कवि ने सुमति देव्यष्टोत्तर शतानाम तथा शारदाष्टक लिखा है जिनमें गुरुवाणी को 'सुधाधर्म, संसाधनी धर्मशाला, सुधातापनि नाशनी मेघमाला। महामोह विध्वंसनी मोक्षदानी' कहकर 'नामोदेवि वागेश्वरी जैनवानी' आदि रूप से स्तुति की है। केवलज्ञानी सद्गुरु के हृदय रूप सरोवर से नदी रूप जिनवाणी निकलकर शास्त्र रूप समुद्र में प्रविष्ट हो गई। इसलिए वह सत्य स्वरूप और अनन्तनयात्मक हैं।" कवि ने उसकी मेघ से उपमा देकर सम्पूर्ण जगत के लिए हितकारिणी माना है।" उसे सम्यग्दृष्टि समझते हैं और मिथ्यादृष्टि नहीं समझ पाते । इस तथ्य को कवि ने अनेक प्रकार से समझाया है जिस प्रकार निर्वाण साध्य है और अरहंत, श्रावक, साधु, सम्यक्त्व आदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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