Book Title: Jain Sadhna me Sadguru ka Mahattva Author(s): Pushpalata Jain Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 8
________________ [106 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 मीरा ने 'सगुरा' और 'निगुरा' के महत्त्व को दृष्टि में रखते हुए कहा है कि सगुरा को अमृत की प्राप्ति होती है और निगुरा को सहज जल भी पिपासा की तृप्ति के लिए उपलब्ध नहीं होता। सद्गुरु के मिलन से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। रूपचन्द का कहना है कि सद्गुरु की प्राप्ति बड़े सौभाग्य से होती है, इसलिए वे उसकी प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से अभ्यर्थना करते हैं। द्यानतराय को “जो तजै पियै की आसा, द्यानत पावै सिववासा । यह सद्गुरु सीख बताई, काँहूं विरलै के जिय जाई" के रूप में अपने सद्गुरु से पथदर्शन मिला। सन्तों ने गुरु की महिमा को दो प्रकार से व्यक्त किया है- सामान्य गुरु का महत्त्व और किसी विशिष्ट व्यक्ति का महत्त्व । कबीर और नानक ने द्वितीय प्रकार को भी स्वीकार किया है। जैन सन्तों ने भी इन दोनों प्रकारों को अपनाया है। अर्हन्त आदि सद्गुरुओं का तो महत्त्वगान प्रायः सभी जैनाचार्यों ने किया है, पर कुशल लाभ जैसे कुछ भक्तों ने अपने लौकिक गुरुओं की भी आराधना की है।" गुरु के इस महत्त्व को समझकर ही साधक कवियों ने गुरु के सत्संग को प्राप्त करने की भावना व्यक्त की है। परमात्मा से साक्षात्कार कराने वाला ही सद्गुरु ही है। सत्संग का प्रभाव ऐसा होता है कि वह मजीठ के समान दूसरों को अपने रंग में रंग लेता है। काग भी हंस बन जाता है। रैदास के जन्मजन्म के पाश कट जाते हैं। मीरा सत्संग पाकर ही हरि-चर्चा करना चाहती है। सत्संग से दुष्ट भी वैसे ही सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से कुधातु लोहा भी स्वर्ण बन जाता है। इसलिए सूर दुष्ट जनों की संगति से दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं। मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी सत्संग का ऐसा ही महत्त्व दिखाया है। बनारसीदास ने तुलसी के समान सत्संगति के लाभ गिनाये हैं कुमति निकद होय महा मोह मंद होय, जनमगै सुयश विवेक जगै हियसों। नीति को दिव्य होय विनैको बढाव होय, उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लियेसों।। धर्म को प्रकाश होय दुर्गति को नाश होय, बरते समाधि ज्यों पीयूष रस-पिये सों। तोष परि पूर होय, दोष दृष्टि दूर होय, एते गुन होहिं सह संगति के किये सौं ।।" द्यानतराय कबीर के समान उन्हें कृतकृत्य मानते हैं जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गयी है। भूधरमल सत्संगति को दुर्लभ मानकर नरभव को सफल बनाना चाहते हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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