Book Title: Jain Sadhna me Sadguru ka Mahattva
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ 104 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 ॥ और अज्ञान दोनों की प्रकर्षता यहाँ देखी जा सकती है। इसलिए आचार्यों ने मानव की शक्ति का उपयोग अज्ञान को दूर करने में लगाने के लिए प्रेरित किया है। यह प्रेरक सूत्र सद्गुरु ही होता है। सद्गुरु की ही सत्संगति से साधक नरभव की दुर्लभता को समझ पाता है और साधना के शिखर तक पहुँच जाता है। महावीर, बुद्ध आदि महापुरुषों को इसीलिए सद्गुरु कहा जाता है। आचार्य श्री हस्तीमल महाराज सा. भी ऐसे ही सद्गुरु रहे हैं जिनकी संगति से लोगों ने धर्म के अन्तस्तल को पहचाना है। सद्गुरु और सत्संग साधना की सफलता और साध्य की प्राप्ति के लिए सद्गुरु का सत्संग प्रेरणा का स्रोत रहता है। गुरु का उपदेश पापनाशक, कल्याणकारक, शान्ति और आत्मशुद्धि करने वाला होता है। उसके लिए श्रमण और वैदिक साहित्य में श्रमण आचार्यों, बुद्ध, पूज्य, धर्माचार्य, उपाध्याय, भन्ते, भदन्त, सद्गुरु, गुरु आदि शब्दों का पर्याप्त प्रयोग हुआ है। जैनाचार्यों ने अर्हन्त और सिद्ध को भी गुरु माना है और विविध प्रकार से गुरु-भक्ति प्रदर्शित की है। इहलोक और परलोक में जीवों को जो कोई भी कल्याणकारी उपदेश प्राप्त होते हैं वे सब गुरुजनों के प्रति विनय से ही होते हैं। इसलिए उत्तराध्ययन में गुरु और शिष्यों के पारस्परिक कर्तव्यों का विवचेन किया गया है।" इसी सन्दर्भ में सुपात्र और कुपात्र के बीच जैन तथा वैदिक साहित्य भेदक रेखा भी खींची गई है। जैन साधक मुनिरामसिंह " और आनंदतिलक ने गुरु की महत्ता स्वीकार की है और कहा है कि गुरु की कृपा से ही व्यक्ति मिथ्यात्व, रागादि के बंधन से मुक्त होकर भेदविज्ञान द्वारा अपनी आत्मा के मूल विशुद्ध रूप को जान पाता है। इसलिए उन्होंने गुरु की वन्दना की है। आनंदतिलक भी गुरु को जिनवर, सिद्ध, शिव और स्व-पर का भेद दर्शाने वाला मानते हैं। जैन साधकों के ही समान कबीर ने भी गुरु को ब्रह्म (गोविन्द) से भी श्रेष्ठ माना है। उसी की कृपा से गोविन्द के दर्शन संभव हैं। रागादिक विकारों को दूर कर आत्मा ज्ञान से तभी प्रकाशित होती है जब गुरु की प्राप्ति हो जाती है। उनका उपदेश संशयहारक और पथप्रदर्शक रहता है। गुरु के अनुग्रह एवं कृपा दृष्टि से शिष्य का जीवन सफल हो जाता है। सद्गुरु स्वर्णकार की भांति शिष्य के मन से दोष और दुर्गुणों को दूर कर तप्त स्वर्ण की भांति खरा और निर्मल बना देता है।” सूफी कवि जायसी के मन में पीर (गुरु) के प्रति श्रद्धा द्रष्टव्य है। वह उनका प्रेम का दीपक है। हीरामन तोता स्वयं गुरु रूप है" और संसार को उसने शिष्य बना लिया है।" उनका विश्वास है कि गुरु साधक के हृदय में विरह की चिनगारी प्रक्षिप्त कर देता है और सच्चा साधक शिष्य गुरु की दी हुई उस वस्तु को सुलगा देता है।" जायसी के भावमूलक रहस्यवाद का प्राणभूततत्व प्रेम है और यह प्रेम पीर की महान देन है। पद्मावत के स्तुतिखंड में उन्होंने लिखा है "सैयद असरफ पीर पिराया। जेहि मोहि पंथ दीनह उंजियारा। लेसा हिट प्रेम कर दीया। उठी जौति भा निरमल हीया।।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12