Book Title: Jain Sadhna Author(s): Rishabhdas Ranka Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 7
________________ रिषभदास रांका : जैन साधना : 309 जड़ और चेतन द्रव्य पृथक् हैं, फिर भी संयोग से मिल गये हैं. इनमें से किसी एक तत्त्व का आलंबन लेकर उस पर चित्त को निश्चल या एकाग्र किया जा सकता है. इससे ध्यान में एकाग्रता आती है और मन की सुप्त शक्तियों का विकास होता है. अनेक विषयों में भटकनेवाले मन को एकाग्र करने के लिए ऐसी उपमा दी जाती है कि जैसे चूल्हे में जलने वाली एक एक लकड़ी के निकाल लेने पर अपने आप आग बुझ जाती है वैसे ही मन को चंचल बनाने वाले एक एक विषय को दूर कर देने से चंचलता दूर होकर वह निष्प्रकप बन जाता है. आत्मा पर जो अज्ञान के आवरण थे वे दूर होकर ज्ञान का प्रकाश फैल जाता है. ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर श्वासोच्छ्वास आदि शारीरिक क्रियाएं चलती रहती हैं पर वे सहज भाव में प्राकृतिक धर्म के रूप में चलती रहती हैं. उनसे बन्धन नहीं होता. साधक शैल की तरह अकंप बन जाता है जिसे जैन साधना में शैलेशी अवस्था कहा है. उस समय ऐसी अपूर्व अवस्था उत्पन्न होती है जिसमें अन्दर और बाहर की समस्त सूक्ष्म और स्थूल क्रियाएं रुक जाती हैं. मन का व्यापार भी निरुद्ध हो जाता है. आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मस्थ हो जाता है. यहीं साधना का अन्त होता है और साधक सिद्ध बन जाता है. 0-0-0--0--0--0--0--0--0--0 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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