Book Title: Jain Sadhna
Author(s): Rishabhdas Ranka
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 1
________________ श्रीरिषभदास रांका जैन साधना हर प्राणी सुख की अभिलाषा रखता है और सुख प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील भी रहता है. किन्तु इच्छा और प्रयत्नों के बावजूद भी अधिकांश लोगों को सुख और संतोष नहीं प्राप्त होता. इसलिए यह मानना पड़ता है कि सुखप्राप्ति के मार्ग में कुछ न कुछ भूल अवश्य हो रही है. मानव को सच्चे सुख का मार्ग अनुभवी साधक व सिद्ध पुरुषों ने बताया है. वे कहते हैं कि मनुष्य के अधिकांश दुःख उसके तथा दूसरों के अज्ञान, तृष्णा, मूर्खता या असमता के कारण ही निर्माण होते हैं. हमारे पास सुखप्राप्ति के सभी साधन मौजूद हैं. आत्मा में सुखप्राप्ति की शक्ति है. इसलिये आत्मा को सत् चित् व आनंद रूप माना है. उसमें श्रेय-साधन की अनंत शक्ति भरी हुई है. वह चैतन्य-स्वरूप है. पुरुषार्थ से वह अपने श्रेयसाधन की शक्ति में वृद्धि कर सकता है और उसे आनंद की अवस्था प्राप्त हो सकती है. उसने जो चित्-चैतन्य व शरीर में शक्ति पाई है उसका योग्य उपयोग करके उन्नत व सुखी हो सकता है. पर वह शक्ति निरर्थक बर्बाद हो रही है. उसे साधना द्वारा योग्य काम में लगाना चाहिए. भारतीय संस्कृति की साधना भारतीय संस्कृति की तीन धारायें हैं- वैदिक, बौद्ध और जैन. हम देखते हैं कि बैदिक संस्कृति की साधना में पतञ्जलि ने योग के द्वारा दुःखमुक्ति व सुखप्राप्ति का रास्ता बताया. बौद्ध साधना में भी समाधि-मार्ग का वर्णन मिलता है जिससे निर्वाण-प्राप्ति हो सकती है. और जैन साधना में भी कर्मबंधन और उसके परिणामों से मुक्ति पाने का रास्ता बताया है. जैनसाधना जैनदर्शन ने दुःख का कारण कर्म माना है. आत्मा पर कर्म का आवरण आ जाने से मनुष्य सच्चे सुख का रास्ता भूल जाता है और शरीर के प्रति उसका ममत्व हो जाता है. वह शारीरिक सुखों को ही महत्त्व देकर उन्हें पाने के लिए गलत रास्ता अपनाता है. दूसरों को दुःख देने पर कोई सुखी नहीं बनता. पर वह अपने सुखों के लिये सब जीव समान हैं, इस तथ्य को भूल कर दूसरों को कष्ट देने लगता है. जैनदर्शन कहता है कि दूसरों को दुःखी बनाकर सुखप्राप्ति का प्रयत्न अज्ञान है. इस अज्ञान के कारण दुःखवृद्धि के साथ-साथ जन्म-मरण के चक्कर भी बढ़ते हैं. इसलिए आत्मा पर से कर्म का आवरण दूर करना चाहिये. तभी आत्मा की सुप्त शक्तियां जाग्रत होती हैं, जिससे मनुष्य सच्चे सुखका स्वरूप जानकर शारीरिक सुख-दुःखों में विवेक करना सीखता है. अज्ञान, तृष्णा या कषायों द्वारा निर्माण होने वाले दुःख से वह मुक्ति पा जाता है और दूसरों के द्वारा दिये हुए दुःखों को वह शांतिपूर्वक सहन करने की शक्ति पा लेता है. वह दुःखों से विह्वल या क्षुब्ध नहीं बनता. मानवता का पूर्ण विकास कर्मों के आवरण हट जाने पर भी शेष आयु तो उसे भोगनी पड़ती है, नाम से भी वह पुकारा जाता है और जब तक Jain Education Interion For pavate & Personal use only (www.gelibrary.ee

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