Book Title: Jain Sadhna
Author(s): Rishabhdas Ranka
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 6
________________ [0-0-0-0-0--0 ३०८ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय आर्त्तध्यान संसार में इष्टवियोग, अनिष्टयोग, बीमारी तथा वस्तुओं की प्राप्ति की अभिलाषा स्वाभाविक रूप से पाई जाती है, उसके लिए लोग चिंता करते हुए भी पाये जाते हैं. अप्रिय की प्राप्ति सुखकर नहीं होती, दुखदायक होती है. मनुष्य अपने आप को उसके चिन्तन में लगाता है. अनिष्टयोग, इष्टवियोग, बीमारी, वेदना आदि को सर्वथा टालना असंभव है. ऐसे अवसरों पर विवेक और धीरज रखकर उन्हें सहन करना चाहिए. वैसा न कर यदि वह व्याकुल बनकर उस विषय की चिंता करता है तो अपनी शक्ति व्यर्थ खोता है. उस शक्ति को आत्मविकास में लगाए यही इष्ट है और नये विषयों की प्राप्ति में चित्त को लगाना यह विवेक से टाला जा सकता है. क्योंकि तृष्णा के पीछे चित्त को लगाना हानिकर है. ध्यान किसी भी विषय का किया जा सकता है. चित्त को एकाग्र करने से शक्ति प्राप्त होती है. शारीरिक सुखप्राप्ति के लिए तपश्चर्या कर उन्हें प्राप्त करने के उदाहरण पुराणों में मिलते हैं. पर यह ध्यान मनुष्य को नीचे गिराता है और दुःखों का कारण बनता है, इसलिए आर्त्तध्यान को अनिष्ट माना गया है. रौद्रध्यान हिंसा, असत्य, दूसरों का शोषण तथा परिग्रह के सतत चिंतन को रौद्रध्यान कहा गया है. जैसे आर्त्तध्यान का मूल लालसा या तृष्णा है वैसे ही रौद्रध्यान का आधार क्रूरता हिंसा है. अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का अनिष्ट चिन्तन, दूसरों को ठगना, असत्य, बेईमानी आदि तरीके सोचने में चित्त को एकाग्र बनाना, दूसरे के धन के अपहार का मार्ग सोचना, परिग्रह की रक्षा का चिंतन करना आदि रौद्रध्यान में आते हैं. रौद्रध्यान साधक की दृष्टि से अनिष्ट है. जो ध्यान मनुष्य को ऊँचा उठाते हैं वे धर्म और शुक्लध्यान हैं. ऐसे ध्यान के लिये वज्रऋषभनाराचसंहनन जैसा बलिष्ठ शरीर आवश्यक होता है. निर्बल रोगी तथा पंगु शरीर में वह सहनशक्ति नहीं होती. इसलिए उत्कृष्ट ध्यान के लिये स्वस्थ शरीर का होना आवश्यक है. धर्मध्यान जो ध्यान समता को बढ़ाने और दृढ़ करने के लिये किया जाता है वह धर्मध्यान है. इसके लिये जिन्होंने रागद्वेषादि शत्रुओं पर विजय पाई है, ऐसे अनुभवी पुरुषों के वचनों का, चित्र का तथा उनकी मूर्ति का आलंबन लिया जा सकता है. जब मनुष्य आत्मनिरीक्षण कर अपने दोष या कमजोरियों को समझकर उन्हें दूर करने की कोशिश करता है, राग द्वेषादि कषायों को अपने विकास पथ में बाधक समझकर उन्हें दूर कर सत्यमार्ग पर चलने का चिंतन करता है, उसपर अपने चित्त को केन्द्रित कर अभ्यास बढ़ाता है तब उस ध्यान को धर्मध्यान कहा जा सकता है. शुभ-अशुभ कर्मों के फल का चिंतन शुद्धि की ओर अग्रसर करने में सहायक होता है. संसार का स्वरूप, उसकी विशा लता, शाश्वतता, स्थिति या विनाश-शीलता का चिंतन, विविध द्रव्यों की परिवर्तनशीलता जान लेने पर अनासक्ति बढ़ती है. फिर उसमें व्याकुलता नहीं आती. इस तरह के ध्यान से भावनाओं की शुद्धि होती है. अनासक्ति और धर्म के चिंतन से आयुकर्म के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं और वह शुक्लध्यान में प्रवेश कर पूर्ण मानवता को प्राप्त होता है. विकासक्रम में धर्मध्यान के बाद शुक्लध्यान आता है. शुक्लध्यान साधक जड़-चेतन के भेदों को समझकर चिंतन करता है और गहराई में जाकर परमाणु तथा चेतन द्रव्य के संबंधों का भिन्न-भिन्न दृष्टि से विचार करता है तो उसके सदाचार में दृढ़ता आने से चारित्रमोहनीय कर्मों का नाश होता है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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