Book Title: Jain Ramkatha ki Pauranik aur Darshanik Prushthabhumi
Author(s): Gajanan Narsimh Sathe
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 6
________________ जैन रामकथा की पौराणिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि ६७१ (घ) काल-तत्व-जैन रामकथाकारों ने कथा-कथन के दौरान काल-तत्त्व सम्बन्धी जैन मान्यता प्रस्तुत की है । उनके अनुसार काल मौलिक तत्व है। निश्चयकाल और व्यवहारकाल नामक काल के दो भेदों में से व्यवहार काल दो भागों में विभक्त है-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। यह त्रिभुवनरूपी वल्मीक काल-भुजंगम ने परिवेष्टित कर रखा है। इस काल-भुजंगम के परिवार में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामक दो सपिणियां है। इनमें से प्रत्येक के छ:छः पुत्र हैं। उन सबका परिवार विशाल है। उत्सपिणी काल में पदार्थ मात्र का विकास होता रहता है, जबकि अवसर्पिणी काल में उसकी अवनति होती जाती है । अवसपिणी काल के दुःखमा-दुःखमा नामक अंश में संसार की सबसे अधिक बुरी स्थिति हो जाती है । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, राम-लक्ष्मण-रावण आदि समस्त शलाका पुरुष अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में हो गए हैं । पउमचरियं आदि के अनुसार मुनि अप्रमेयबल से काल-भुजंगम का वर्णन सुनकर इन्द्रजित, कुम्भकर्ण आदि ने दीक्षा ग्रहण की। (ङ) लोक-तत्त्व-जैन मान्यता के अनुसार, पहले अनन्त आकाश है । उसके बीच कर्ता से रहित निरंजन और परिवर्तनशील तीन लोक हैं। इनमें से तिर्यक् लोक के अन्दर जंबूद्वीप में सुमेरु नामक स्वर्ण पर्वत के दाहिने भाग में छ:खण्ड बाला भरतक्षेत्र है । भरतक्षेत्र के उत्तर में हिमवान पर्वत और मध्य में विजयाध पर्वत है । उत्तर भरतक्षेत्र के तीन और दक्षिण भरतक्षेत्र के तीन-कुल छः खण्ड हैं। कहा जा चुका है, राम आदि का सम्बन्ध इसी भरतक्षेत्र से है । छहों खण्डों का अधिपति चक्रवर्ती कहलाता है । भरत, सगर आदि बारह चक्रवर्ती हो गए हैं । तीन खण्डों का अधिपति अर्धचक्रवर्ती कहलाता है । लक्ष्मण और रावण अर्धचक्रवर्ती थे। . . (च) स्वर्ग-नरक-श्वेताम्बर सम्प्रदाय बारह स्वर्ग मानता है, तो दिगम्बर सोलह । पुण्यवान जीव मृत्यु के बाद स्वर्ग में स्थान प्राप्त करके सुख-भोग कर लेते हैं । रामकथाकारों के अनुसार सीता मृत्यु के पश्चात्, अच्युत नामक स्वर्ग में इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुई थी। जटायु और राम के सेनापति कृतान्तवक्त्र ने माहेन्द्र नामक चौथे स्वर्ग में जन्म लिया था। जैन पुराणों के अनुसार नरक सात हैं, जिनमें पापियों को उनके पाप की मात्रा के अनुसार मृत्यु के पश्चात् स्थान मिलता है । रत्नप्रभा आदि नरकों में अग्नि प्रज्वलित रहती है, वे नाना प्रकार के कीड़ों-कृमियों कीचड़ से भरे रहते हैं। नरक में असिपत्रवन तथा वैतरणी नदी का भी अस्तित्व है । पउमचरिउ के ८९वीं सन्धि में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा आदि नरकों का उल्लेख है, उसमें वालुकाप्रभा नरक के एक दृश्य का भी वर्णन है। जैन रामकथा के अनुसार रावण, लक्ष्मण, शम्बु आदि को नरक-वास प्राप्त हो गया था। स्वर्ग अवलोक में हैं, तो नरक अधोलोक में । (छ) योनियां, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-जैन पुराणों के अनुसार जीव को ८४ लाख योनियों में से भ्रमण करते हुए कृमि-कीट, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि का जन्म ग्रहण करना पड़ता है। प्रत्येक जन्म में कर्म करते हुए जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और अपने कर्म के अनुसार पुनर्जन्म प्राप्त करता है । जैन रामकथा में राम, लक्ष्मण, सीता, रावण, जटायु आदि के पूर्वजन्मों की कथा बताई गई है । केवली राम ने लक्ष्मण आदि के परवर्ती जन्मों की झलक भी दिखाई है। जैन मान्यता के अनुसार तिर्यंच योनि के जीवों को भी तीर्थकर के समवशरण में स्थान है और मनुष्येतर जीव तक तीर्थकर के उपदेश को श्रवण करने के लिए इकट्ठे होते हैं । देव भी एक स्वतन्त्र योनि है और जीव सत्कर्म करने पर उसे प्राप्त कर सकता है। पउमचरिउं में कहा है कि मृत्यु के समय णमोकार मंत्र का श्रवण करने के कारण एक वानर स्वर्ग में देव के रूप में उत्पन्न हो गया था। (ज) वंश-आदिकाल के चौदह कुलकरों में से अन्तिम कुलकर नाभिराजा के मरुदेवी नामक पत्नी से ऋषभदेव नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। यह पुत्र ही आदि तीर्थकर माना जाता है । ऋषभदेव की एक उपाधि 'इक्ष्वाकु' थी इससे उनका वंश "इक्ष्वाकु" कहलाया। ऋषभदेव का भरत नामक पुत्र प्रथम चक्रवर्ती हो गया। उससे "सूर्यवंश" चल पड़ा । राम-लक्ष्मण इक्ष्वाकु वंश की इसी सूर्यवंशी शाखा में उत्पन्न हुए थे। ऋषभदेव के बाहुबली नामक पुत्र के वंश को "ऋषिवंश" कहते हैं। बाहुबली के पुत्र से "सोम" या चंद्रवंश चल पड़ा । मिथिलाधिपति जनक का सम्बन्ध इसी वंश से है । रामकथात्मक ग्रन्थों के रचयिताओं ने आवश्यकतानुसार इन बंशों की उत्पत्ति और विस्तार का और उनमें उत्पन्न महापुरुषों के प्रताप का वर्णन किया है। जब भगवान ऋषभदेव तपस्या में लीन थे, तब कश्यप और महाकश्यप के पुत्र नमि और विनमि वहाँ उपस्थित होकर राज्य-सम्पदा की मांग करने लगे। तो धरणेन्द्र ने उन्हें विद्याएँ और विजयार्घ पर्वत की उत्तर तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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