Book Title: Jain Ramkatha ki Pauranik aur Darshanik Prushthabhumi
Author(s): Gajanan Narsimh Sathe
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 9
________________ ६७४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगामी होता है । अतः कर्मों के नष्ट हो जाने पर जीव शरीर से वियुक्त हो जाता है और लोक के अन्त को प्राप्त करता है। लोकान में जिस स्थान पर मुक्त जीव ठहरता है, उसे 'सिद्धशिला' कहते है। रामायण के अनेकानेक पात्र मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं और सिद्धशिला पर निवास करने के अधिकारी हो जाते हैं। (घ) मनुष्य-जीवन का चरम लक्ष्य-जैनदर्शन के अनुसार मनुष्य-जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति है। सांसारिक धन-वैभव एवं सुखोपभोग की सारहीनता अनुभव करके उसका त्याग करना और प्रव्रज्या लेना मोक्ष-लाभ के मार्ग का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। जैन रामकथा के अनुसार दशरथ, बाली, राम, सीता, हनुमान आदि पात्र प्रव्रज्या लेते हैं और मोक्ष-मार्ग पर अग्रसर हो जाते है। रावण, लक्ष्मण, शम्बु आदि ऐसा नहीं करते, इसलिए उन्हें मोक्ष प्राप्ति के पहले और भी अनेकानेक योनियों में भ्रमण करना पड़ेगा। (ङ) जगत : जैनदर्शन के अनुसार जगत को अनन्त और सर्वव्यापी आकाश में स्थान प्राप्त है । इस जगत का कोई निर्माता नहीं है, इस दृष्टि से वह स्वयंसिद्ध तथा अनादि है। फिर भी प्रत्येक द्रव्य की भांति वह परिणमन करता रहता है । अत: वह सारहीन है, प्रत्येक-स्थिति क्षणिक है । भोगविलास, धन-दौलत आदि की निःसारता भव्य जीव को उसका परित्याग करने की प्रेरणा देती है। इसका मान होने पर दशरथ ने सर्वत्याग करके प्रव्रज्या ग्रहण की। एक तारे के गिर कर विनष्ट होने को देखकर हनुमान ने वही किया। इस निःसार राज्य-वैभव के लिए लड़ाई-झगड़ा क्यों करें?-इस विचार से बाली ने राज्यश्री सुग्रीव को सौंप कर प्रव्रज्या ग्रहण की। भरत ने राम को राज्य लौटाकर वही किया। (च) माया : 'पाइअसद्दमहण्णव' के अनुसार 'माया' का अर्थ है-छल-कपट, धोखा । जैन ग्रन्थों के अनुसार माया चार कषायों में से एक है। मन, वचन और काय का प्रयोग जहाँ पर विषमरूप से किया जाए, वहाँ मायाकषाय समझना चाहिए । अर्थात्, दूसरे को धोखा देने या ठगने के अभिप्राय से अपने मन के अभिप्राय को छिपाकर दूसरा आशय प्रकट करनेवाले वचन बोलने या शरीर से वैसी कोई चेष्टा करने तथा इसी प्रकार वचन और काय में भी वैषम्य रखने को माया कहते हैं । माया आदि कषाय आत्मा को कसकर उसमें विकृति उत्पन्न करते हैं और उसे कर्ममल से मलिन करते हैं । जैन रामकथा के अन्तर्गत मायासुग्रीव प्रकरण माया का मूर्तिमान उदाहरण है । सहस्रगति नामक विद्याधर ने छल-कपटपूर्वक सुग्रीव का-सा रूप धारण करके उसकी पत्नी राज्य आदि छीन लिया और उसकी प्रजा को भी चकमा दिया। रावण ने भी अवलोकनी विद्या की सहायता से सिंहनाद उत्पन्न करवाकर सीता की रक्षा करने वाले राम को धोखा दिया और राम के दूर चले जाने पर सीता का अपहरण किया। इस प्रकार रावण माया कषाय से लिप्त हो गया । चन्द्रनखा द्वारा राम-लक्ष्मण को धोखा देने का यत्न भी इसी श्रेणी में आता है। (छ) कर्म : भारतीय दर्शन में कर्मसिद्धान्त विशिष्ट महत्व रखता है। इसे भारत के सभी दार्शनिक संप्रदायों ने स्वीकार किया है, फिर भी उसकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से की है। जैनदर्शन में कर्म सम्बन्धी दृष्टिकोण वैज्ञानिक है । यहाँ संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि शरीर, मन और वचन की क्रिया या 'योग' से आकर्षित पुद्गल परमाणु आत्मा में चिपकते हैं । आत्मा के सम्पर्क में आने वाले कार्माण वर्गणा के परमाणु 'कर्म' कहलाते हैं। आत्मा के सम्पर्क में योगाकर्षित परमाणुओं के आने को 'आस्रव', रोकने को 'संवर' और उनके झड़ जाने को निर्जरा कहते हैं । कर्म के अनेकानेक भेद बताए गए हैं । जीव का प्रत्येक कर्म अपना कुछ-न-कुछ प्रभाव दिखाता ही है । साधक घातिकर्मों का क्षय करके परमात्म पद प्राप्त करता है। जैन रामायणों में बाली, राम आदि द्वारा घातिकर्मो के क्षय कर देने का न्यूनाधिक विस्तार से उल्लेख मिलता है । जैनदर्शन के अनुसार कर्म का कर्ता और कर्म-फल का भोक्ता स्वयं जीव होता है। साधक विशिष्ट नियम के अनुसार आचरण करता हुआ अपना विकास स्वयं कर लेता है । ब्राह्मण-परंपरा की रामकथा में ऋषि-मुनियों के अभिशाप या वरदान तथा राम द्वारा किसी का उद्धार करते हुए उसे मोक्ष-मुक्ति दिला देने की कथाएँ मिलती हैं, परन्तु जैन रामकथा में ऐसी कथाएँ नहीं मिलतीं । राम न किसी का उद्धार करते हैं न कोई मुनि किसी को अभिशाप देता है । रावण सीता के साथ बलात्कार इसलिए नहीं करता कि उसने वैसा व्रत ले रखा है। जैन कर्म सिद्धान्त की विशिष्टता के कारण जैन रामकथा के व्यक्तित्व और उनकी कथा का रंग ही बदल गया है। (ज) दर्शन : जीव के चतन्य लक्षण का तात्पर्य 'उपयोग' से है और उपयोग के दर्शन और ज्ञान नामक दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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