Book Title: Jain Rahasyawad Author(s): Pushpalata Jain Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ १६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................................. कविवर द्यानतराय आत्मविभोर होकर यही कह उठे-'आतम अनुभव करना रे भाई !' यह आत्मानुभव भेदविज्ञान के बिना संभव नहीं होता। नव पदार्थों का ज्ञान, व्रत, तप, संयम का परिपालन तथा मिथ्यात्व का विनाश अपेक्षित है। भैया भगवतीदास ने अनुभव को शुद्ध-अशुद्ध रूप में विभाजित करके शुद्धानुभव को उपलब्ध करने के लिये निवेदन किया है। यह शुद्धानुभव राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व तथा पर-पदार्थों की संगति को त्यागने, सत्य स्वरूप को धारण करने और आत्मा (हंस) के स्वत्त्व को स्वीकार करने से प्राप्त होता है। इसमें वीतराग भक्ति, अप्रमाद, समाधि, विषयवासना मुक्ति, तथा षद्रव्य-ज्ञान का होना भी आवश्यक है।' शुद्धानुभवी साधक आत्मा के निरंजन स्वरूप को सदैव समीप रखता है और पुण्य-पाप के भेदक तत्त्व से सुपरिचित रहता है। एक स्थान पर तो भैया भगवतीदास ने अनुभव का अर्थ सम्यग्ज्ञान किया है और स्पष्ट किया है कि कुछ थोड़े ही भव (जन्म-मरण) शेष रहने पर उसकी प्राप्ति होती है। जो उसे प्राप्त नहीं कर पाता वह संसार में परिभ्रमण करता रहता है। कविवर भूधरदास आत्मानुभव की प्राप्ति के लिए आगमाभ्यास पर अधिक बल देते हैं। उसे उन्होंने एक अपूर्व कला तथा भवदाधहारी घनसार की सलाक माना है। जीवन की अल्पस्थिति और फिर द्वादशांग की अगाधता हमारे कलाप्रेमी को चितित कर देती है। इसे दूर करने का उपाय उनकी दृष्टि में एक ही है--श्रुताभ्यास । यही श्रुताभ्यास आत्मा का परम चिंतक है। कविवर द्यानतराय भी भवबाधा से दूर रहने का सर्वोत्तम उपाय आत्मानुभव मानते हैं । आत्मानुभव करने वाला साधक पुद्गल को विनाशीक मानता है। उसका समता-सुख स्वयं में प्रकट रहता है। उसे किसी भी प्रकार की दुविधा अथवा भ्रम शेष नहीं रहता। भेदविज्ञान के माध्यम से वह स्व-पर का निर्णय कर लेता है। दीपचन्द कवि भी आत्मानुभूति को मोक्ष-प्राप्ति का एक ऐसा साधन मानते हैं जिसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना की जाती है । फलतः अखण्ड और अचल ज्ञान-ज्योति प्रकाशित होती है।' डा. राधाकृष्ण ने भी इसी को रहस्यवाद कहा है । पर उन्होंने विचारात्मक अनुभूति को दर्शन का क्षेत्र बना दिया। उसका भावात्मक अनुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं स्वीकार किया। यहाँ हम उनके विचारों से सहमत नहीं हो सकेंगे। अनुभूति में भाव यद्यपि प्रधान और मूल अवश्य है पर उनका निकट सम्बन्ध विचार अथवा दर्शन से भी बना रहता है। बिना विचार और दर्शन के भावों में सघनता नहीं आ सकती। ३. आत्मतत्व आध्यात्मिक साधना का केन्द्र है। संसरण का मूल कारण है-आत्मतत्त्व पर सम्यक् विचार का अभाव । आत्मा का मूलस्वरूप क्या है ? और वह मोहादि विकारों से किस प्रकार जन्मान्तरों में भटकता है ? इत्यादि जैसे प्रश्नों का यहाँ समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाता है। ४. परमपद में लीन हो जाना, रहस्यवाद की प्रमुख अभिव्यक्ति है। इसमें साधक आत्मा की इतनी पवित्र अवस्था तक पहुंच जाता है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है। आत्मा और परमात्मा का एकाकारत्व एक ऐसी अवस्था है जहाँ साधक समस्त दुःखों से विमुक्त होकर एक अनिर्वचनीय शाश्वत चिदानन्द चैतन्य का रसपान करने लगता है। इसी को शास्त्रीय परिभाषा में हम निर्वाण अथवा मोक्ष कहते हैं। ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी, ६८. वही, १०१. वही, पुण्य-पाप जगमूलपच्चीसी, १८. वही, परमात्मशतक, २६. ५. जैनशतक, ६१. ६. अध्यात्म पदावलि, पृ० ३५६. ७. ज्ञानदर्पण, ४, ४५, १२८-३० आदि. ८. हर्ट आव् हिन्दुस्तान (भारत की अन्तरात्मा) अनुवादक-विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी, १६५३, पृ० ६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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