Book Title: Jain Rahasyawad
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 11
________________ २०२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. गूंगे का सा गुड़ की इस रहस्यानुभूति में तर्क अप्रतिष्ठित हो जाता है- "कहत कबीर तरह दुइ साधे तिनकी मति है मोटी" और वाद-विवाद की ओर से मन दूर होकर भगवद्भक्ति में लीन हो जाता है। उसकी अनुभूति साधक की आत्मा ही कर सकती है। रूपचंद ने इसी को 'चेतन अनुभव घट प्रतिभासो, चेतन अनुभव घन मन भावो' आदि शब्दों से अभिव्यक्त किया है । संत सुन्दरदास ने ब्रह्मसाक्षात्कार का साधन अनुभव को ही माना है। बनारसीदास के समान ही संत सुंदरदास ने भी उसके आनन्द को अनिर्वचनीय कहा है। उन्होंने उसे साक्षात् ज्ञान और प्रलय की अग्नि माना है जिसमें सभी द्वैत, द्वन्द्व और प्रपंच विलीन हो जाते हैं ।५ सुन्दरदास ने 'अपहु आप हि जान' स्वीकार किया है । भैया भगवतीदास ने इसी को शुद्धात्मा का अनुभव कहा है। बनारसीदास ने पंचामृत-पान को भी अनुभव के समक्ष तुच्छ माना है और इसलिए उन्होंने कह दिया--'अनुभौ समान धरम कोऊ और न' । अनुभव के आधार-स्तम्भ ज्ञान, श्रद्धा और समता आदि जैसे गुण होते हैं। कबीर और सुन्दरदास जैसे संत भी श्रद्धा की आवश्यकता पर बल देते हैं। इस प्रकार अध्यात्म किंवा रहस्यसाधना में जैन और जैनेतर साधकों ने समान रूप से स्वानुभूति की प्रकर्षता पर बल दिया है। इस अनुभूतिकाल में आत्मा को परमात्मा अथवा ब्रह्म के साथ एकाकारता की प्रतीति होने लगती है। यहीं समता और समरसता का भाव जागरित होता है। इसके लिए सन्तों और आचार्यों को शास्त्रों और आगमों की अपेक्षा स्वानुभूति और चिन्तनशीलता का आधार अधिक रहता है । डा० राजकुमार वर्मा ने संतों के सन्दर्भ में सही लिखा है- ये तत्त्व सीधे शास्त्र से नहीं आये, वरन् शताब्दियों की अनुभूति तुला पर तुलकर, महात्माओं की व्यावहारिक ज्ञान की कसौटी पर कसे जाकर सत्संग और गुरु के उपदेशों से संगृहीत हुए। यह दर्शन स्वाजित अनुभूति है। जैसे सहस्रों पुष्पों की सुगन्धि मधु की एक बूंद में समाहित है, किसी एक फूल की सुगन्धि मधु में नहीं है, उस मधु के निर्माण में भ्रमर की अनेक पुण्य-तीर्थों की यात्रायें सन्निविष्ट हैं, अनेक पुष्पों की क्यारियाँ मधु के एक-एक कण में निवास करती हैं। उसी प्रकार संत-सम्प्रदाय का दर्शन अनेक युगों और साधकों की अनुभूतियों का सम्मुच्चय है। जैन और जैनेतर रहस्यभावना में अन्तर १. जैन रहस्यवाद आत्मा और परमात्मा के मिलन की बात अवश्य करता है पर वहाँ आत्मा से परमात्मा मूलतः पृथक नहीं। आत्मा की विशुद्धावस्था को ही परमात्मा कहा जाता है जब कि अन्य साधनाओं में अन्त तक आत्मा और परमात्मा दोनों पृथक् रहते हैं। आत्मा और परमात्मा के एकाकार होने पर भी आत्मा परमात्मा नहीं बन पाता । जैन साधना अनन्त आत्माओं के अस्तित्व को मानता है पर जैनेतर साधनाओं में प्रत्येक आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है। -दादूदयाल की वानी, भाग-२, पृ०२६. ---संत सुधासार, पृ० ५८६. १. वादविवाद काहू सों नाहों माहि जगत थे न्यारा, २. हिन्दी पद संग्रह, पृ० ३६-३७. ३. अनुभव विना नहीं जान सके निरसंध निरंतर नूर है रे । उपमा उसकी अब कौन कहै नहिं सुदर चंदन सूर है रे ।। ४. संत चरनदास की वानी, भाग २, पृ० ४५. ५. सुन्दरविलास, पृ० १६४. ६. वही, पृ० १५६. ७. ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी, पृ०६८. ८. नाटक समयसार, उत्थानिका, १६, पृ० १४. ६. बनारसीविलास, ज्ञानबावनी १०. डा० राजकुमार वर्मा : अनुशीलन, पृ० ७७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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