Book Title: Jain Rahasyawad
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 13
________________ २०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........................................................................... महावीर की रहस्यवादी परम्परा अपने मूलरूप में लगभग प्रथम सदी तक चलती रही। उसमें कुछ विकास अवश्य हुआ, पर वह बहुत अधिक नहीं । यहाँ तक आते-आते आत्मा के तीन स्वरूप हो गये---बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । साधक बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के माध्यम से परमात्मपद को प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में आत्मा और परमात्मा में एकाकारता हो जाती है तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीणं । तत्थ परो झाइज्जइ, अंतोवाएण चएहि बहिरप्पा ।।२ __ इस दृष्टि से कुन्दकुन्दाचार्य नि:सन्देह प्रथम रहस्यवादी कवि कहे जा सकते हैं। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि ग्रन्थों में इसका सुन्दर विश्लेषण किया है। मध्यकाल कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उनके ही पदचिह्नों पर आचार्य उमास्वामि, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, मुनि कार्तिकेय, अकलंक, विद्यानन्दि, अनन्तवीर्य, प्रभाचंद्र, मुनि योगीन्दु आदि आचार्यों ने रहस्यवाद का अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनुसार विश्लेषण किया। यह दार्शनिक युग था। उमास्वामि ने इसका सूत्रपात किया था और माणिक्यनंदि ने उसे चरम विकास पर पहुँचाया था। इस बीच जैन रहस्यवाद दार्शनिक सीमा में बद्ध हो गया। इसे हम जैन-दार्शनिक रहस्यवाद भी कह सकते हैं। दार्शनिक सिद्धान्तों के अन्य विकास के साथ एक उल्लेखनीय विकास यह था कि आदिकाल में जिस आत्मिक प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष कहा गया था और इन्द्रियप्रत्यक्ष को परोक्ष कहा गया था, उस पर इस काल में प्रश्न-प्रतिप्रश्न खड़े हुए। उन्हें सुलझाने की दृष्टि से प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये--पंव्यावहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । यहाँ निश्चयनय और व्यवहारनय की दृष्टि से विश्लेषण किया गया। साधना के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ। इस युग में मुनि योगीन्दु का भी योगदान उल्लेखनीय है। इनका समय यद्यपि विवादास्पद है फिर भी हम लगभग ८वीं, हवीं शताब्दी तक निश्चित कर सकते हैं। इनके दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ निर्विवाद रूप से हमारे सामने हैं - १. परमात्मप्रकाश और २. योगसार। इन ग्रन्थों में कवि ने निरंजन आदि कुछ ऐसे शब्द दिए हैं जो उत्तरकालीन रहस्यवाद के अभिव्यंजक कहे जा सकते हैं । इन ग्रन्थों में अनुभूति का प्राधान्य है । परमेश्वर से मन का मिलन होने पर पूजा आदि निरर्थक हो जाती हैं, क्योंकि दोनों एकाकार होकर समरस हो जाते हैं मणु पिलिय उपरमेसरहं, परमेसरु विमणस्स । बीहि वि समरसि हूवाहि, पुज्ज चडावउं कस्स ॥' उत्तरकाल उत्तरकाल में रहस्यवाद की आधारगत शाखा में समयानुकूल परिवर्तन हुआ। इस समय तक जैन संस्कृति पर वैदिक साधकों, राजाओं और मुसलमानों आक्रमणकारियों द्वारा घनघोर विपदाओं के बादल छा गये थे। उनसे बचने के लिए आचार्य जिनसेन ने मनुस्मृति के आचार को जैनीकृत कर दिया, जिसका विरोध दसवीं शताब्दी के आचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलक चम्पू में मन्द स्वर में किया। लगता है, तत्कालीन समाज उस व्यवस्था को स्वीकार कर चुकी थी। जैन रहस्यवाद की यह एक और सीढ़ी थी, जिसने उसे वैदिक संस्कृति के नजदीक ला दिया। जिनसेन और सोमदेव के बाद रहस्यवादी कवियों में मुनि रामसिंह का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता २. मोक्ख पाहुड-कुन्दकुन्दाचार्य, ४. १. योगसार, १२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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