Book Title: Jain Puran katha ka Lakshanik Swarup
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 4
________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ यों अप्रमत्त भाव से वह धर्म-शासन का संचालन करता है। इस कथा में बड़े ही लाक्षणिक ढंग से भौतिक सत्ता के अंतिम बिन्दु को, परम कल्याण के छोर में ग्रथित कर दिया गया है। श्रादि तीर्थकर वृषभदेव के पुत्र भरत ऐसे ही चक्रवर्ती थे, जिनके नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इस तरह नारायण, प्रतिनारायण, बलिभद्र, कामदेव आदि परमता की कई कोटियां होती हैं और उनके जुदा-जुदा विवरण हैं। ___जैन मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण नारायण थे। वे नियोग से ही तीन खंड पृथ्वी के अधीश्वर अर्धचक्री थे। पूर्णचक्री से ठीक प्राधे यानी सात रत्न अर्ध-चक्री के कोषागार में जन्म लेते हैं। नारायण प्रधानतया कर्म-पुरुष होता है। वह लोक में लौकिक शौर्य, प्रताप और ऐश्वर्य का अकेला प्रभु होता है। उसकी लीला में कौतुक, कौतुहल, शौर्य, सम्मोहन और प्रणय का प्राधान्य होता है। लीला-पुरुषोत्तम कृष्ण के व्यक्तित्व में इन वृत्तियोंका प्रकाश पूर्णतया सांगोपांग हुआ है। त्रिखंड विजय के उपरान्त उस कर्म-पुरुष के विभव-स्वप्न को मूर्त करने के लिये समुद्र में देवों ने द्वारिका रची थी। कृष्ण के चचेरे भाई तीर्थकर नेमिनाथ को कैवल्य प्राप्त होने पर उन्होंने अपने समवशरण में यह भविष्यवाणी की थी कि यादव-पुत्र द्वैपायन के हाथों ही द्वारिका का दहन होगा और अपने ही भाई जरत्कुमार के हाथों कृष्ण की मृत्यु होगी। छप्पन करोड़ यादवों की भृकुटियां टेढ़ी हो गयी थीं उस समय। कुमार द्वैपायन उसी क्षण दीक्षा लेकर वहां से चल दिये और जरत्कुमार भी इस पातक से बचने के लिये दूर देशांतरों में चले गये। पर उस अकांड को टालने के सारे निमित्त व्यर्थ हुए और तीर्थकर की वाणी सत्य हुई। यादवों के अपने ही क्रीडा-कौतुक ने उनका श्रात्मनाश किया। ऐसी थी उस लीला-योगी की लीला। द्वारिका-दहन और यदुकुल के नाश के बाद कृष्ण उत्तर मथुरा की ओर जाते हुए एक जंगल में सोये विश्राम ले रहे थे, भाई बलराम उनके लिये जल लेने गये थे। तभी जंगल में निर्वासन लेकर भटकता जरत्कुमार उधर श्रा निकला। हरि के पग-तल की मणिको हिंस्र पशु की अांख जान उसने तीर चलाया। वह नारायण के पग-तल की प्राण-मणि को बींध गया। त्रिखंड पृथ्वी का अविजित प्रभु अंतिम क्षण में भाई को क्षमा कर ज्ञानी बन गया और किसी अागामी भव के लिये तीर्थकर प्रकृति बांध कर तत्काल देहत्याग कर गया। . कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कामकुमार थे। कामकुमार जन्म से ही कामदेव का रूप लेकर अवतरित होता है और चरम शरीरी, अघात्य, तथा तद्भव मोक्षगामी होता है। वह स्वभाव से ही बहुत लीला-प्रिय, कौतुकी और साहसी होता है। वह रोमांटिक नायक की पूर्णतम कल्पना को हमारे समक्ष मूर्तिमान करता है। हनुमान भी कामकुमार ही थे। प्रद्युम्न को शिशु-वय में ही पूर्वभव के वैरी ने उसे एक प्रचण्ड शिला के नीचे दबा कर मार देना चाहा था, पर चरम शरीरी कामदेव अघात्य था। उसका घात न हो सका, प्रहार के तले भी वह क्रीड़ा ही करता रहा। शिशु हनुमान अपनी मां अंजना के हाथ से उछल कर विमान में से नीचे कन्दरा में जा गिरे थे। पर्वत की शिला टूक-टूक हो गयी पर हनुमान का बाल बांका न हो सका। बालक मुस्कराता हुअा खेलता पाया गया। . प्रद्युम्न ने अपने पूर्व नियोग के चौदह वर्ष-व्यापी स्वजन-बिछोह में कई देश-देशान्तरों में भ्रमण कर अपनी शक्ति, प्रतिभा, शौर्य और सौन्दर्य से अनेक सिद्धियों और विद्याओं का लाभ किया था। अपनी युवा भौहों के मोहक दर्प और अपने ललाट के मधुर तेज से उस आवारा और अनजान राजपुत्र ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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