Book Title: Jain Puran katha ka Lakshanik Swarup Author(s): Virendrakumar Jain Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 1
________________ जैन पुराण-कथा का लाक्षणिक स्वरूप श्री वीरेन्द्रकुमार जैन सबसे पहले पुराण-कथा के प्रकृत स्वरूप ज़रूरी है। और उसके मनोवैज्ञानिक उद्गम पर प्रकाश डाल देना मनुष्य अपने वास्तविक रूप से तुष्ट नहीं। उसे अनादि काल से उच्चतर और सम्पूर्णतर जीवन की खोज रही है। इस खोज ने इन्द्रियगम्य वस्तु-जगत् की सीमा भी लांघी है, और मनुष्य ने लोकोत्तर और 'दिव्य के सपने भी देखे हैं। सपने ही नहीं देखे, अपने उन सपनों को अपने रक्तांशों में जीवित कर, अपने ही मांस में से उसने प्रकाश की उन मूर्तियों को जीवन्त भी किया है। जब-जब मनुष्य के स्वप्न के उस 'परम सुन्दर' ने रूप ग्रहण किया, वह अपने सर्वांगीण ऐश्वर्य की अनेक लीलात्रों को मानवीय मन पर बहुत गहरा अंकित कर गया। उस परम पुरुष या परम नारी का जो स्थूल व्यक्तीकरण होता है, वह अपने आप में ही समाप्त नहीं है। उस लीला में एक अधिक गहरा और सूक्ष्म सत्य होता है, जो अरूप होता है। चर्मचक्षु की पकड़ में वह नहीं पाता, पर बोध के द्वारा वह उस काल के मनुष्यों की अनुभूति में रम जाता है। यह अनुभूति मानवी रक्त में समाविष्ट होकर पीढ़ी दर पीढ़ी संक्रमित होती रहती है। विकास के नव-नवीन उन्मेषों और सपनों से मनुष्य उस अनुभूति को सघनतर और विपुलतर बनाता जाता है, नाना काव्यों और कला-कृतियों में उसे संजोता है और अन्ततः वही अनुभूति श्रेष्ठतर और उच्चतर मानवों के रूप में आविर्भूत होकर हमें आगामी देवत्व का आभास दे जाती है। हमारे वैज्ञानिक युग के 'सुपर मैन' की कल्पना के मूल में भी उत्तरोत्तर विकास की यही अजस्र चेतना काम कर रही है। मनुष्य के भीतर अपार ऐश्वर्य की सम्भावनाएं दिन और रात हिलोरें ले रही हैं। उन्हें वह एक वास्तविक और सीमित घटना के वर्णन के रूप में नहीं अांक सकता, क्योंकि वह देश-काल की बाधा से मुक्त असीम भूमा का परिणमन है। इसीसे उस अनन्त सौन्दर्य को व्यक्त होने के लिये कल्पना का सहारा लेना पड़ता है। सर्वकाल और सर्वदेश में उसी एक प्राण-पुरुष की सत्ता व्याप्त है। इसीसे मनुष्य का मन सब जगह समान रूप से काम करता है और यही कारण है कि जहां भी और जब भी किसी लोकोत्तर, दिव्यसत्ता ने जन्म लिया है, तो उसने सर्वत्र मानवी मन पर अपनी असाधारणता की प्रायः एक-सी छाप डाली है। इस तरह मनुष्य के स्वप्न के विगत, अागत और अनागत श्रादर्श पुरुषों की कथाओं को एक लाक्षणिक रूप-सा मिल गया है। कल्प-पुरुष के इसी लाक्षणिक रूप को भिन्न-भिन्न देश-काल के लोगों ने और उनके कवि-मनीषियों ने नाना रंगों के प्रकाश-सूत्रों में बांधा है। स्वप्न-पुरुष और स्वप्न-नारी की इस कल्पना-ग्राह्य कथा को ही हम पुराण-कथा कह सकते हैं। निरे वास्तव के तथ्य से ऊपर उठ कर कथा जब भी भाव-कल्पना के दिव्य लोक में चली गयी है, तभी वह पुगण-कथा बन गयी है। अपने मन की सारी उद्दीप्त अाशा, कांक्षा और कामना से अभिषिक्त कर मनुष्य की अनेक पीढ़ियां उसी कल्प-पुरुष की कथा के नव-नवीन और महत्तर रूपों को दुहराती गयी हैं। मनुष्य की कथा जब भी प्रकट सामान्य के धरातल से उठकर सम्भाव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5