Book Title: Jain Parampara me Dhyan
Author(s): Dharmichand Chopda
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ जैन-परम्परा में ध्यान 0 धर्मीचन्द चौपड़ा अर्चनार्चन परिभाषा चिन्तन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं, जैसे भ्रमर फूलों के रसपान में लीन रहता है वैसे ही लीनतापूर्वक मन का एक ही ध्येय-बिन्दु पर लगा रहना ध्यान कहलाता है। विषयान्तर होने पर ध्यान का क्रम टूट जाता है। महत्त्व ___ व्यावहारिक भाषा में हम कहते हैं कि अमुक कार्य ध्यान से करना, ध्यान नहीं रखा तो कार्य बिगड़ जायेगा। साधारण-सी बात लीजिये-द्रव पदार्थ को एक पात्र से दूसरे पात्र में डालते समय पूरी एकाग्रता नहीं रखते हैं तो द्रव पदार्थ पात्र से बाहर चला जाता है। शीशी में इत्र भरना होता है तो भरते समय कितना ध्यान रखा जाता है । ध्यान नहीं रखा तो मूल्यवान इत्र शीशी से बाहर गिर जाता है । अध्यापक के पढ़ाते समय विद्यार्थी अपना ध्यान अध्यापक के वचनों की अोर नहीं रखता है तो वह ज्ञानार्जन नहीं कर सकता है। जिस प्रकार लौकिक कार्य में ध्यान की एकाग्रता आवश्यक है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में भी ध्यान की एकाग्रता पावश्यक है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेकप्रत्यय संततिः । अर्थात् अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है। लगातार एक ही विषय पर ४८ मिनट से कुछ कम समय (अन्तर्मुहुर्त) तक ध्यान एकाग्र रह सकता है। फिर विषयान्तर हो जाता है। प्राचार्य उमास्वाति ने कहा हैउत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । आ मुहूर्तात् । -तत्वार्थसूत्र ९ । २७-२८ अर्थात उत्तम संहनन वाले का एक विषय में अन्तःकरण की वत्ति का स्थापन-ध्यान है । वह अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहता है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है मुहर्तान्तर्मनःस्थैर्य ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् । योगशास्त्र ४।११५ अर्थात छद्मस्थ साधक का मन अधिक से अधिक अन्तमहर्त तक स्थिर रहता है। किन्तु मन को एकाग्र करना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए निरन्तर अभ्यास की मावश्यकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9