Book Title: Jain Parampara me Dhyan
Author(s): Dharmichand Chopda
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 7
________________ अर्चनार्चन Jain Education International धर्मध्यान के चार लक्षण' १. आशारुचि -- जिन प्राजा के चिन्तन-मनन में रुचि, श्रद्धा एवं भक्ति होना । २. निसर्गरुचि - धर्म कार्यों के करने में स्वाभाविक रुचि होना । २. सूत्ररुचि - प्रागम शास्त्रों के पठन-पाठन में रुचि होना । ४. श्रवगाढरुचि -- द्वादशांगी का विस्तारपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने में प्रगाढ़ रुचि होना । धर्मध्यान के चार आलम्बन १. वाचना- - श्रागमसूत्र का पठन-पाठन करना । २. प्रतिपृच्छना - शंका निवारणार्थ गुरुजनों से पूछना । ३. परिवर्तना-पठित सूत्रों का पुनरावर्तन करना । ४. अनुप्रेक्षा धर्य का चिन्तन करना । 3 धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं १. एकत्वानुप्रेक्षा जीव के सदा अकेले परिभ्रमण और सुख-दुःख भोगने का चिन्तन करना । २. धनित्यानुप्रेक्षा- सांसारिक वस्तुओं की प्रनित्यता का चिन्तन करना । ३. प्रशरणानुप्रेक्षाजीव को कोई दूसरा धन-परिवार धादि शरणभूत नहीं, ऐसा चिन्तन करना | पंचम खण्ड / १२६ ४. संसारानुप्रेक्षा - चतुर्गति रूप संसार की दशा का चिन्तन करना । कलिकालसवंश हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में ध्यान के चार घालम्बन बताये हैं, जो इस प्रकार है पिस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवजितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्थालम्बनं बुधैः ॥ - योगशास्त्र ७८ ज्ञानी पुरुषों ने ध्यान के प्रालम्बन रूप ध्येय को चार प्रकार का माना है - १. पिंडस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रूपातीत । १. पिंडस्वध्यान पिण्ड का अर्थ है शरीर शान्त, एकान्त स्थान में किसी योग्य घासन पर स्थिर बैठकर शरीर (पिंड) में स्थित धारमदेवता का ध्यान करना पिडस्थध्यान है । इसमें शुद्ध निर्मल श्रात्मा को लक्ष्य में रखकर चिन्तन किया जाता है । पिंडस्थध्यान की पांच धारणाएँ बताई गई हैं १. पार्थिवी, २. प्राग्नेयी, ३. वायवी, ४. वारुणी, ५. तत्त्वरूपवती । २. पदस्यध्यान यत्पदानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते । तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगः ॥ १ - २ - ३ स्थानांगसूत्र ४। १ तथा व्याख्याप्र. सू. २५/७ For Private & Personal Use Only - योगशास्त्र ६१ www.jainelibrary.org

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